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(विश्वास के अभाव में) और न अन्धविश्वास का संवर्द्धन हो (विज्ञान के अभाव में)। ★ निषेधात्मक धर्म के द्वारा निषिद्ध साधनों के प्रति हेयदृष्टि एवं विधेयात्मक धर्म के द्वारा
अनुशंसित साधनों (Recommanded Means) के प्रति उपादेयदृष्टि हो। ★ धर्म के शाश्वत् मूल्यों को पूर्ण रूप से अंगीकार करने एवं पारिस्थितिक मूल्यों को देश, काल,
शक्ति एवं परिस्थिति के आधार पर ग्रहण करने की नीति हो। ★ धार्मिक-व्यवहार इस प्रकार से सम्पादित हो कि अर्थ एवं काम के नियंत्रित सेवन में बाधा न हो
और क्रमशः मोक्ष-साध्य की ओर बढ़ा जा सके। ★ सामाजिक जीवन-व्यवहार में धर्म, अर्थ एवं काम परस्पर अविरोधी हों, किन्तु अपरिहार्य बाधक
परिस्थिति उत्पन्न होने पर काम एवं अर्थ की तुलना में धर्म का संरक्षण करने वाली नीति हो (धर्मो रक्षति रक्षितः)। ★ धार्मिक-व्यवहार जीवन के प्रत्येक क्षेत्र के सम्यक् प्रबन्धन के लिए सहयोगी बने, जैसे - शिक्षा-प्रबन्धन, समय-प्रबन्धन, शरीर-प्रबन्धन, अभिव्यक्ति (वाणी)-प्रबन्धन, तनाव एवं मनोविकार-प्रबन्धन, पर्यावरण-प्रबन्धन, समाज-प्रबन्धन, अर्थ-प्रबन्धन, भोगोपभोग-प्रबन्धन एवं आध्यात्मिक-प्रबन्धन।
इस प्रकार, उपर्युक्त नीतियों का सजगतापूर्वक पालन करने से धार्मिक जीवन के व्यवहारों का प्रबन्धन सम्यक दिशा में अग्रसर हो सकता है। 12.6.3 उपासनात्मक साधनों का सम्यक् उपयोग करना
__ आत्म-सजगतापूर्वक धार्मिक-व्यवहार-प्रबन्धन के सही लक्ष्यों तथा नीतियों का निर्धारण करके यह आवश्यक हो जाता है कि व्यक्ति धार्मिक व्यवहारों का सम्यक् शिक्षण-प्रशिक्षण प्राप्त करे। इस हेतु उसे उपासनात्मक पद्धति को अपनाना चाहिए। उपासनात्मक पद्धति के द्वारा उसे ज्ञानात्मक एवं क्रियात्मक शिक्षाएँ प्राप्त होती हैं और ये शिक्षाएँ ही उसके नैतिक एवं आध्यात्मिक विकास का आधार होती हैं। (1) ज्ञानात्मक साधनों का सम्यक् प्रयोग
धार्मिक-व्यवहार-प्रबन्धन हेतु ज्ञान-प्राप्ति एक अनिवार्य आवश्यकता है। जैनधर्म में इस हेतु अनेक व्यवस्थाएँ हैं। प्राथमिक स्तर पर व्यक्ति को चाहिए कि वह प्रवचन, सत्संग (स्वाध्याय), शिविर, पाठशाला, संगोष्ठी (सेमीनार) आदि के माध्यम से ज्ञानार्जन करे। जैनशास्त्रों में कहा गया है कि मनुष्य जीवन पाने के बाद भी उत्तम धर्म का श्रवण कर पाना अत्यन्त कठिन है,96 अतः व्यक्ति को चाहिए कि वह पूर्ण निष्ठा एवं रुचि के साथ धर्म-श्रवण के अवसर का लाभ उठाए। इस हेतु व्यक्ति को उन तेरह कारणों से बचना होगा, जो धर्म-श्रवण करने में बाधक होते हैं" - 1) आलस्य, 2) मोह, 3) अवज्ञा , 4) अभिमान, 5) क्रोध, 6) प्रमाद, 7) कृपणता, 8) भय, 9) शोक, 10) अज्ञान, 11) उपेक्षा, 12) कुतूहल और 13) अरमणता। स्थानांगसूत्र में भी धर्म-श्रवण के लिए बाधा रूप दो बातों का 683 अध्याय 12 : धार्मिक-व्यवहार-प्रबन्धन
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