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उल्लेख किया गया है, जिनसे साधक को बचना चाहिए "
महारम्भ (अतिहिंसा), 2) महापरिग्रह । जैसे-जैसे व्यक्ति का ज्ञानात्मक-स्तर बढ़ता है, वैसे-वैसे उसे धर्म-श्रवण के साथ-साथ सम्यक् दृष्टिकोण का विकास करने की भी आवश्यकता होती है” और इस हेतु चिन्तन-मनन करना अनिवार्य है।
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जैन-परम्परा में यह व्यवस्था भी है कि व्यक्ति परिपक्व होने पर स्वयं शास्त्राध्ययन करे । जैनाचार्यों ने जैन साहित्य के चार विभाग किए हैं 1) धर्मकथानुयोग, 2) गणितानुयोग, 3) द्रव्यानुयोग एवं 4) चरण - करणानुयोग ।' इन सभी का सन्तुलित अध्ययन करके व्यक्ति अपने ज्ञान को और अधिक समृद्ध कर सकता है। धर्मकथानुयोग से महापुरूषों की आदर्श कथाओं का पठन कर विनय, विवेक, सत्य, संयम, समता, क्षमा, सरलता आदि सद्गुणों को जीवन में अंगीकार करने की प्रेरणा मिलती है। गणितानुयोग से स्वयं के दोषों एवं उनके दुष्परिणामों को जानकर उनसे दूर हटने की प्रेरणा मिलती है। द्रव्यानुयोग से जड़-चेतन या आत्म-अनात्म का सम्यक् बोध होकर विभाव से स्वभाव में आने की कला प्राप्त होती है। चरण - करणानुयोग से आचार - व्यवस्था का बोध होकर अपनी भूमिकानुसार उचित में उचित आचरण करने की प्रेरणा मिलती है ।
का आगमन ठहराव
इन चारों अनुयोगों में द्रव्यानुयोग प्रधान है, जिससे जीव-अजीव, आस्रव - संवर (शुभाशुभ भावों आस्रव एवं उनका आंशिक निषेध - संवर), बन्ध - निर्जरा (शुभाशुभ भावों का आत्मा में बन्ध एवं उनका आंशिक क्षय निर्जरा), संसार-मोक्ष आदि के स्वरूप का ज्ञान होता है । इस ज्ञान बल पर ही आत्म-अनात्म का विवेक होकर आत्मज्ञान एवं आत्मस्थिरता की प्राप्ति होती है।
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(2) क्रियात्मक साधनों का सम्यक् प्रयोग
धार्मिक जीवन के व्यवहार का सम्यक् प्रबन्धन करने हेतु विविध क्रियाओं का प्रयोग करना भी एक आवश्यक कार्य है । ये क्रियाएँ यन्त्रवत् न होकर पूर्ण तन्मयता एवं समझ के साथ होनी चाहिए । प्राथमिक स्तर पर यह सम्भव है कि इन क्रियाओं को करते हुए समझ की कमी रह जाए, किन्तु जीवन–प्रबन्धक को शनैः-शनैः इन क्रियाओं को ज्ञानपूर्वक पूर्ण करने का लक्ष्य रखना चाहिए ।
जैन - परम्परा में भिन्न-भिन्न भूमिकाओं के साधकों के लिए जिन-जिन क्रियाओं को करने का विधान किया गया है, वे इस प्रकार हैं
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(क) अर्हद - भक्ति जैन - परम्परा में अरिहन्त अवस्था को जीवन की सर्वोच्च शुद्ध दशा माना गया है । इस अवस्था को प्राप्त आत्माओं का आलम्बन लेकर इनके प्रति पूर्णतया समर्पित हो जाना जीवन-प्रबन्धक का कर्त्तव्य है और यही अर्हद् - भक्ति है । देवदर्शन, वन्दन, पूजन, बहुमान, गुणगान, नामस्मरण आदि अनुष्ठान अर्हद् - भक्ति के ही विविध रूप हैं। वस्तुतः, इन धर्मकृत्यों में परमात्मा के प्रति समर्पण का उद्देश्य सांसारिक ऋद्धि-सिद्धि नहीं, अपितु परमात्मा के समान सद्गुणों की प्राप्ति होना चाहिए (वन्दे तद्गुणलब्धये) । कहा गया है101
जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व
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