Book Title: Jain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Author(s): Manishsagar
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 787
________________ अज कुलगत केसरी लहे रे, निज पद सिंह निहाल। तिम प्रभु भक्ते भवि लहे रे, आतम शक्ति संभाल ।। आशय यह है कि प्रभु की भक्ति करते हुए भव्यात्मा को अपनी आत्म-शक्तियों का सहज ही बोध हो जाता है। (ख) गुरु-उपासना - जैन-परम्परा में संयममय जीवन जीने वाले पंचमहाव्रतधारी साधु-साध्वी को गुरूपद पर आसीन किया गया है। ये अपने जीवन को श्रेष्ठ तरीके से प्रबन्धित करते हुए उत्कृष्ट पद अर्थात् अरिहन्त पद एवं तत्पश्चात् सिद्धपद (मोक्ष) की प्राप्ति के पुरूषार्थ में संलग्न रहते हैं। धार्मिक-व्यवहार-प्रबन्धन के अन्तर्गत व्यक्ति को गुरु के दर्शन, वन्दन, पूजन, नामस्मरण, उपदेश-श्रवण आदि विविध उपासनाएँ करने का निर्देश दिया गया है। विशेषता यह है कि गुरु-उपासना का उद्देश्य सांसारिक कामनाओं की पूर्ति नहीं, अपितु गुरु के निकट रहकर उनसे जीवन-प्रबन्धन का मार्गदर्शन प्राप्त करना है। (ग) माला, जाप एवं ध्यान - जैन-परम्परा में मन को एकाग्र एवं शान्त करने के लिए माला , जाप एवं ध्यान की पद्धति भी बताई गई है। व्यक्ति को चाहिए कि वह अपनी मानसिक स्थिति के आधार पर इनका प्रयोग करे। मन की चंचलता अधिक होने पर माला-जाप करे एवं कम होने पर ध्यान की पद्धति अपनाए। मूलतः माला में कायिक, जाप में वाचिक एवं ध्यान में मानसिक आलम्बन की प्रधानता होती है। इनका प्रयोग करते हुए जैसे-जैसे एकाग्रता बढ़ती है और मनोविकारों का शमन होता है, वैसे-वैसे साधक को ध्यान की निरालम्बन अवस्था को पाने का प्रयत्न करना चाहिए। ध्यान के महत्त्व के बारे में कहा गया है102 - अरिहंत पद ध्यातो थको, दवह गुण पज्जाय रे। भेद-छेद करी आतमा, अरिहन्त रूपी थाय रे ।। आशय यह है कि अरिहंत पद का आलम्बन ध्यान करती हुई आत्मा अपने विकारों का छेदन-भेदन करते हुए स्वयं अरिहंत रूप हो जाती है। (घ) सामायिक - यह समत्व भावों में स्थित होने की क्रिया है। इसके माध्यम से नियत काल तक पाप कार्यों से मुक्त रहकर राग-द्वेष रहित होने का अभ्यास किया जाता है। प्रारम्भिक स्तर पर भले ही इसमें शास्त्र आदि का आलम्बन लिया जाए, लेकिन अन्ततः निरालम्बन रूप आत्म-रमणता की दशा प्राप्त करना ही इसका लक्ष्य होना चाहिए। (ङ) प्रतिक्रमण - विभाव दशा का त्याग कर स्वभाव (धर्म) दशा की ओर लौटने का प्रयत्न प्रतिक्रमण है। इसके अन्तर्गत भिन्न-भिन्न तरीकों से अपने दोषों की समीक्षा एवं शुद्धि की जाती है, जैसे - एक प्रकार से असंयम, दो प्रकार से राग-द्वेष, तीन प्रकार से मनोदण्ड, वचनदण्ड, कायादण्ड इत्यादि के आधार पर भावपूर्वक प्रतिक्रमण करके व्यक्ति न केवल अपने अतीतकालीन दोषों से मुक्त 685 अध्याय 12 : धार्मिक-व्यवहार-प्रबन्धन 33 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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