________________
जीवन-व्यवहार में अपनाना ही वास्तव में श्रेष्ठ धर्म है। यह कहा जा सकता है कि शिक्षार्जन उपासनात्मक या ग्रहणात्मक धर्म है और जीवन-व्यवहार सुधारना आचरणात्मक या आसेवनात्मक धर्म है। उपासनात्मक धर्म के लिए तो स्थानों का निर्धारण किया जाता है, किन्तु आचरणात्मक धर्म तो प्रसंगस्थल पर ही सजगता के साथ निभाना होता है। आचरणात्मक धर्म को कसौटी पर कसते हुए एवं स्थान-निरपेक्ष बताते हुए कहा गया है - जो दुःखों की प्राप्ति में भी दुःखी नहीं होता, सुख की प्राप्ति में भी जो लालसारहित रहता है, जिसके मन में ममत्व, भय एवं क्रोध समाप्त हो चुके हैं, वही धार्मिक है, स्थितप्रज्ञ है एवं मुनि है। ज्ञानसार में भी कहा गया है - जो मन-वचन-काया की स्थिरता को प्राप्त हो चुके हों, वे ग्राम में रहें अथवा जंगल में, दिवस हो अथवा रात्रि, उनकी समता बनी ही रहती
है। 90
12.5.6 धार्मिक-व्यवहार-प्रबन्धन के लिए उपयुक्त समय क्या हो?
धार्मिक-व्यवहार-प्रबन्धन की सफलता के लिए व्यक्ति को समयानुसार धार्मिक-व्यवहार करना अत्यावश्यक है। कहा भी गया है - 'काले कालं समायरे' अर्थात् उचित समय पर उचित कार्य करना ही योग्य है।
जैसा कि हमने पूर्व में देखा है कि धर्म के दो रूप हैं - उपासनात्मक एवं आचरणात्मक। इनमें से आचरणात्मक धर्म के लिए समय का कोई बन्धन नहीं होता, वह प्रतिसमय आचरणीय है, जबकि उपासनात्मक धर्म सदैव समय सापेक्ष होता है। जैन-परम्परा में विविध उपासनाओं को नियत काल में सम्पादित करने का विधान है, जैसे - देवदर्शन एवं पूजन (त्रिकाल), गुरु समागम (त्रिकाल), प्रतिक्रमण (प्रातः एवं सायं), चौदह नियम (प्रातः एवं सायं), प्रत्याख्यान ग्रहण (प्रातः एवं सायं), आत्मचिन्तन (प्रातः एवं रात्रि), तीर्थयात्रा (वर्ष में कम से कम एक बार) इत्यादि। जैन-परम्परा में मूलतः धार्मिक उपासनाओं को दैनिक, पाक्षिक, चातुर्मासिक एवं वार्षिक कर्तव्यों के रूप में विभक्त किया गया है। इसके अतिरिक्त पर्वतिथियों पर विशेष-विशेष उपासना करने का विधान भी है।
इस प्रकार, इन सैद्धान्तिक पक्षों का निरन्तर अनुशीलन कर जीवन-प्रबन्धक को अपने धार्मिक-व्यवहार–प्रबन्धन का सम्यक नियोजन (Planning) करना चाहिए।
=====< >=====
28
जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व
680
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org