________________
उपर्युक्त विवेचन के आधार पर निम्न बिन्दुओं को जानना धार्मिक - व्यवहार - प्रबन्धन के लिए आवश्यक है
-
★ व्यक्ति को धर्म के बाह्य साधनों का दुराग्रह नहीं रखते हुए विवेकपूर्वक लचीला रुख अपनाना चाहिए ।
★ धर्म के अंतरंग साधनों के प्रति अनिश्चयात्मक स्थिति नहीं रखते हुए पूर्ण स्थिर एवं सन्देहरहित रहना चाहिए ।
★ धर्म के बाह्य साधनों का आश्रय लेकर अंतरंग साधनों तक पहुँचना चाहिए एवं परिपूर्ण धार्मिक भावात्मक विकास करना चाहिए ।
(8) धर्म विश्वास और विज्ञान (प्रज्ञा) दोनों पर आधारित है
धार्मिक-व्यवहार- प्रबन्धन के लिए यह आवश्यक है कि व्यक्ति विश्वास और विज्ञान दोनों का सम्यक् समन्वय करे। एक ओर वह प्रज्ञा (विज्ञान) के द्वारा सत्य का निश्चय करे और दूसरी ओर वह निर्णीत सत्य के प्रति पूर्ण निष्ठा (विश्वास) रखे।
26
81
यदि वह विज्ञान (प्रज्ञा) का अपलाप कर केवल विश्वास (निष्ठा) की नींव पर धर्म की इमारत खड़ी करने का प्रयत्न करता है, तो वह इमारत कभी टिक नहीं सकेगी। जैनाचार्यों ने उस विश्वास को कभी सम्यक् नहीं माना, जिसमें सम्यग्ज्ञान का आधार न हो। 1 उत्तराध्ययनसूत्र में इसीलिए कहा गया है कि प्रज्ञा से धर्म की समीक्षा करो और तत्त्व का निर्णय करो ( पन्ना समिक्ख धम्मं तत्तं तत्तविणिच्छियं)।82 अन्यत्र भी कहा है ज्ञान से ही तत्त्वबोध होता है और ज्ञान से ही मुनि हुआ जाता है।84 सूत्रकृतांगसूत्र में तो प्रज्ञाहीन मनुष्य को नेत्रहीन मनुष्य की उपमा देते हुए कहा गया है कि वह शास्त्र के समक्ष रहकर भी सत्य का दर्शन नहीं कर पाता। 85 सन्त आनन्दघनजी की यह पंक्ति भी ज्ञानहीन आचरण की निरर्थकता को दर्शाती है
-
चरम
नयण करी मारग जोवतां रे, भूल्यो सकल संसार | जेणे नयणे करी मारग जोइये रे, नयण ते दिव्य विचार ||
इसी प्रकार, यदि कोई विश्वास (श्रद्धा) का अपलाप कर केवल कुतर्क एवं कुयुक्ति के द्वारा बौद्धिक विलास ही करे, तो भी यह उसका धर्म नहीं हो सकता। जैनाचार्यों ने उस ज्ञान को भी सम्यक् नहीं कहा है, जिसके साथ सम्यक् विश्वास (दृष्टिकोण) का समन्वय न हो । विश्वास के महत्त्व को दर्शाते हुए कहा गया है कि जैसे 'एक' (संख्या) के बिना शून्य की कोई कीमत नहीं है और संख्या के साथ मिलते ही शून्य भी मूल्यवान् हो जाता है, वैसे ही यह मानना होगा कि सम्यक् दृष्टिकोण के बिना ज्ञान का कोई मूल्य नहीं है और सम्यक् विश्वास होते ही ज्ञान भी सम्यक् बन जाता है। सन्त आनन्दघनजी ने इन विश्वास रहित विद्वानों पर कटाक्ष करते हुए कहा
Jain Education International
जीवन- प्रबन्धन के तत्त्व
For Personal & Private Use Only
678
www.jainelibrary.org