Book Title: Jain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Author(s): Manishsagar
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 779
________________ उपयोगी नहीं बन पाती। अतः व्यक्ति को विवेकपूर्वक प्रवृत्ति एवं निवृत्ति की उचितता का ध्यान रखकर अपने धार्मिक व्यवहारों का प्रबन्धन करना चाहिए। प्रवृत्ति एवं निवृत्ति धर्म का सुन्दर समन्वय हमें आवश्यक-सूत्र के एक पाठ (नमो चउवीसाए) में मिलता है, जिसका उपयोग प्रत्येक श्रमण-श्रमणी को प्रतिदिन सुबह-शाम करना होता है, वह पाठ है - मिच्छत्तं परियाणामि सम्मत्तं उवसंपज्जामि। अबोहिं परियाणामि बोहिं उवसंपज्जामि। अन्नाणं परियाणामि नाणं उवसंपज्जामि। इसका भावार्थ है – “मैं मिथ्यात्व का परित्याग करता हूँ और सम्यक्त्व को स्वीकार करता हूँ। मैं अबोधि का परित्याग करता हूँ और बोधि को स्वीकार करता हूँ। मैं अज्ञान का परित्याग करता हूँ और सम्यग्ज्ञान को स्वीकार करता हूँ। (7) धार्मिक-मूल्य शाश्वत् (उत्सर्गरूप) भी हैं और पारिस्थितिक (अपवादरूप) भी है ___ धार्मिक-व्यवहार-प्रबन्धन के लिए हमें धर्म को पुनः दो प्रकार से ग्रहण करना चाहिए - शाश्वत् एवं पारिस्थितिक। यदि धार्मिक मूल्यों को सर्वथा नित्य एवं अपरिवर्तनशील मान लिया जाए, तो भी विसंगति उत्पन्न होती है और यदि सर्वथा परिवर्तनशील व्यवस्था के रूप में ग्रहण किया जाए, तो भी विसंगति उत्पन्न होती है। पहले में जहाँ धर्म की लोचपूर्णता ही समाप्त हो जाती है, वहीं दूसरे में धर्म के स्थायी मूल्यों के अस्तित्व को ही खतरा होने लगता है, अतः अनेकान्तदृष्टि के अनुसार, धर्म के दोनों ही रूपों को स्वीकारना आवश्यक है। वस्तुतः, जो धर्म का अंतरंग पक्ष है, जो सारतत्त्व है और जो मूलस्वरूप है, उसे शाश्वत् मानना चाहिए, जबकि जो धर्म का बाह्य रूप है, निमित्त साधन है, जो देश, काल, स्वशक्ति एवं परिस्थिति के सापेक्ष है, उसे पारिस्थितिक मानना चाहिए। क्र. धर्म के शाश्वत् मूल्य धर्म के पारिस्थितिक मूल्य 1) आत्मा है और वह नित्य है। पर्व-त्यौहार एवं उन्हें मनाने की 2) शरीर जड़ है, आत्मा से भिन्न है। विधियाँ, रहन-सहन, खान-पान, 3) संसार परिभ्रमण का कारण कर्म है। वेशभूषा एवं रीति-रिवाज, बाह्य 4) राग-द्वेष एवं अज्ञान कर्म के मूल शिष्टाचार एवं अभिवादन, पूजा-भक्ति आदि की पद्धतियाँ, लोक-प्रसिद्ध 5) व्यक्ति स्वयं से ही सुखी और स्वयं से ही दुःखी होता है। आचार व्यवस्था आदि। 6) समता सुख रूप है, राग-द्वेष दुःख रूप हैं। 7) अहिंसा आदि पाँचों व्रत धर्म के आधार हैं। 8) सही जानना, मानना एवं जीना मोक्ष का मार्ग है। 9) जीवन का परम लक्ष्य मोक्ष प्राप्ति है आदि। जैनशास्त्रों में इन्हें क्रमशः उत्सर्ग मार्ग और अपवाद मार्ग के रूप में भी जाना जाता है। 677 अध्याय 12 : धार्मिक-व्यवहार-प्रबन्धन 25 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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