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• कोई व्यक्ति भोजन का त्याग (लंघन ) तो करता है, लेकिन अपने उस समय को टी.वी. देखने या मित्रों के साथ गपशप करने में बिता देता है ।
वस्तुतः त्यागने योग्य एवं ग्रहण करने योग्य दोनों धर्मसाधनों का परस्पर समन्वय स्थापित करना अत्यावश्यक है, अन्यथा धार्मिक - व्यवहार प्रबन्धन सफल नहीं हो सकता। इन दोनों का इस प्रकार समन्वय करना चाहिए कि हमारे नैतिक-आध्यात्मिक मूल्यों का सम्यक् विकास हो सके ।
( 4 ) धर्म पराश्रित भी है और स्वाश्रित भी है
धार्मिक-व्यवहार- प्रबन्धन के लिए धर्म को पुनः दो रूपों में भी दर्शाया गया है पराश्रित (व्यवहार) धर्म और स्वाश्रित ( निश्चय) धर्म। धर्म का वह प्रकार, जिसमें साधक मन-वचन-काया का आलम्बन लेकर शुभ भावपूर्वक स्व-धर्म की प्राप्ति के लिए साधना करता है, पराश्रित धर्म कहलाता है। यह धर्म अशुभ भावों एवं लौकिक धर्म के अन्तर्गत किए जाने वाले शुभ भावों की तुलना में श्रेयस्कर है। इसके अन्तर्गत शुभ भावपूर्वक किए जाने वाले धर्मकृत्य, जैसे अहिंसादि व्रतों का पालन, स्वाध्याय, चिन्तन-मनन, भक्ति आदि आते हैं।
धर्म का दूसरा प्रकार स्वाश्रित धर्म है, जो आत्मा के आश्रित होता है, यह आत्मा का सहज स्वभाव है और इससे अतीन्द्रिय सुख की अनुभूति होती है। यह आत्मा के समस्त व्यवहारों का साध्य है। शुभ भावपूर्वक किए जाने वाले पराश्रित धर्म के अनन्तर रागादि दोषों से रहित होने वाली आत्म-रमणता की दशा स्वाश्रित धर्म है, इस दशा में आत्मा ज्ञाता - दृष्टा रूप अपनी स्वाभाविक अवस्था को प्राप्त कर लेती है। प्रवचनसार में इसका लक्षण स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि जो मोह एवं क्षोभ से रहित आत्मा का समत्वभाव है, वही धर्म (स्वाश्रित) है । "
धार्मिक-व्यवहार- प्रबन्धन के लिए निम्न बिन्दु विचारणीय हैं
★ साधक का परमधर्म स्वाश्रित धर्म ही है, किन्तु इसकी पात्रता विकसित करने के लिए पराश्रित धर्म का आलम्बन भी आवश्यक है।
★ पराश्रित धर्म का आलम्बन इस प्रकार से लेना चाहिए कि अशुभ भावों से निवृत्ति हो सके, शुद्ध भावों (स्वाश्रित धर्म) की पात्रता विकसित हो सके, साथ ही शुभ भावों को ही साध्य मानने की भूल न हो ।
( 5 ) धर्म द्रव्यात्मक भी है और भावात्मक भी है
जैनदृष्टि में धार्मिक व्यवहारों के दो रूप इस प्रकार भी होते हैं द्रव्यात्मक एवं भावात्मक । जहाँ द्रव्यात्मक धर्म का सम्बन्ध केवल वाचिक एवं कायिक प्रवृत्तियों से जुड़ा है, वहीं भावात्मक धर्म अंतरंग आत्मिक अनुभूतियों से सम्बद्ध है, जैसे करबद्ध होकर मस्तक झुकाकर ' णमो अरिहंताणं' का उच्चारण करना द्रव्यात्मक धर्म है और उसके अर्थ - भावार्थ का चिन्तन करना, अरिहन्त परमात्मा के स्वरूप का चिन्तन करना, उनके जैसा बनने का मनोरथ करना एवं उनके समान ज्ञाता - दृष्टा भाव में
अध्याय 12: धार्मिक-व्यवहार-प्रबन्धन
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