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(2) धर्म लौकिक भी है और लोकोत्तर भी है
धार्मिक-व्यवहार-प्रबन्धन के लिए जैनशास्त्रों में दो प्रकार के धर्मों का पालन करने का निर्देश भी मिलता है - लौकिक धर्म एवं लोकोत्तर धर्म। लौकिक धर्म का सम्बन्ध परिवार, समाज एवं राष्ट्र के प्रति दायित्वों के शान्तिपूर्वक निर्वाह से है, जबकि लोकोत्तर धर्म का सम्बन्ध आत्मिक कर्त्तव्यों के निर्वाह से है। चूंकि मुनिवर्ग आत्म-कल्याण के लिए पूर्ण संकल्पित एवं समर्पित होता है, अतः उसे लोकोत्तर धर्म का सम्यक् पालन करना होता है, परन्तु गृहस्थवर्ग के लिए यह आवश्यक है कि वह लौकिक एवं लोकोत्तर दोनों धर्मों का सम्यक् पालन करे।
धार्मिक-व्यवहार–प्रबन्धन के अन्तर्गत जिन लौकिक एवं लोकोत्तर धर्मों के मध्य गृहस्थ वर्ग को सन्तुलन बनाना आवश्यक है, उनके कुछ मुख्य बिन्दु जैनशास्त्रों के आधार पर इस प्रकार है - (क) लौकिक धर्म - सप्तव्यसन का त्याग करना, पूर्व निर्दिष्ट ग्रामादि दस धर्मों का पालन करना, नीतिपूर्वक व्यापार करना, शिष्टाचारपूर्वक जीना, समान कुल वाले किन्तु अन्य गोत्रीय के साथ विवाह करना, देश में प्रचलित आचार-संहिता का पालन करना, शासन के अधिकारी आदि की निन्दा नहीं करना, सत्पुरूषों की संगति करना, माता-पिता की सेवा करना, समाज-निन्दित कार्य नहीं करना , सांप्रदायिक दुराग्रह नहीं रखना, उचित उत्तरदायित्व का निर्वाह करना, उपकारी के प्रति कृतज्ञ रहना, सेवा-सहयोग आदि से सबका प्रिय बनना, पीड़ितों पर दया करना, मार्गानुसारी गुणों का पालन करना इत्यादि। (ख) लोकोत्तर धर्म - मुक्ति मार्ग का सम्यक् ज्ञान प्राप्त करना, वस्तुस्वरूप के बारे में सम्यक् दृष्टिकोण बनाना, कषायविजय का निरन्तर अभ्यास करना, यथाशक्ति अणुव्रतों अथवा महाव्रतों को ग्रहण करना इत्यादि।
धार्मिक-व्यवहारों के सम्यक् प्रबन्धन के लिए जीवन-प्रबन्धक को निम्न बिन्दु विचारने योग्य
★ यदि वह मुनि की भूमिका में है, तो उसे लोकोत्तर धर्म के प्रति निष्ठावान् रहना चाहिए एवं
अनावश्यक लौकिक धर्म को कर्त्तव्य के रूप में ओढ़ने का प्रयत्न नहीं करना चाहिए। ★ यदि वह गृहस्थ है, तो लौकिक कर्त्तव्यों में ही पूरा जीवन नहीं बीता देना चाहिए, वरन्
लोकोत्तर कर्तव्यों के निर्वाह के लिए भी उचित समय एवं ऊर्जा बचानी चाहिए। ★ गृहस्थ जीवन में रहते हुए भी लोकोत्तर साधना के द्वारा अपनी आकांक्षाओं एवं माँगों को सीमित ___ करते जाना चाहिए, जिससे लौकिक धर्म-निर्वाह की आवश्यकता भी सीमित होती चली जाए।
इस प्रकार, जीवन में क्रमशः लौकिक धर्म को सम्यक्तया सीमित करते हुए लोकोत्तर धर्म की निरन्तर अभिवृद्धि करते जाना चाहिए।
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अध्याय 12: धार्मिक-व्यवहार-प्रबन्धन
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