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सामाजिक स्तर से ऊपर उठाकर व्यक्ति को मोक्षानुकूल बनाने का प्रयास है। जैनाचार्यों के अनुसार, इस स्तर पर धर्म की प्रवृत्ति मूलतः आत्मकेन्द्रित (Spiritual) होती है, जिसमें जड़ और चेतन के भेद - ज्ञान की मुख्यता होती है ।
आध्यात्मिक विचारधारा की विशेषता यह है कि इसमें चारों जीवन-मूल्यों को परस्पर एक-दूसरे में गूंथने का कार्य भी किया गया है। एक ही साधक अपने साधनाकाल में चारों को सन्तुलित और समन्वित करता हुआ आगे बढ़ सके, यह व्यवस्था यहाँ सम्यक्तया निर्दिष्ट है। उदाहरणार्थ, जैन मुनि भिक्षार्थ भ्रमण करता है एवं याचनादि करके भिक्षा प्राप्त करता है (अर्थ - मूल्य), वह देह - रक्षणार्थ एवं संयम-पालनार्थ आहार - ग्रहण करता है ( भोग - मूल्य), वह आहारचर्या में हुए दोषों का प्रायश्चित करता है (धर्म-मूल्य) और आहारोपरान्त निज आत्म-स्वरूप में लीन हो जाता है (मोक्ष - मूल्य ) । जैनाचार्यों ने इन चारों मूल्यों को परस्पर जोड़े रखने के लिए यह व्यवस्था दी है कि मुनि अर्थ और भोग की पूर्ति करते हुए भी धर्म-मूल्य का अपलाप न करे। वह धर्मानुकूल समिति, गुप्ति आदि का जागृतिपूर्वक पालन करता हुआ अनाचारों से दूर रहे। वह धर्मप्रवृत्ति करते हुए भी कहीं आत्मलक्ष्य न भूल जाए, यह सावधानी भी उससे अपेक्षित है। इस हेतु उसे बारम्बार मोक्षानुकूल धर्म करने की प्रेरणा जैनाचार्यों ने दी है। यहाँ यह जानना आवश्यक होगा कि जैनशास्त्रों में केवल मुनि ही नहीं, अपितु गृहस्थ को भी चारों जीवन-मूल्यों को परस्पर गूँथते हुए अपने जीवन को आगे बढ़ाने का निर्देश दिया गया है।
निष्कर्ष यह है कि धर्म वह जीवन-मूल्य है, जो एक सेतु (Bridge) के समान कार्य करता है। एक ओर वह अर्थ एवं भोग को नियंत्रित करते हुए मूल्य की श्रेणी में लाता है तथा सामाजिक जीवन को सुव्यवस्थित करने में साध्य रूप सिद्ध होता है, तो दूसरी ओर वह आध्यात्मिक जीवन (मोक्ष) को सुनियोजित करने में साधन रूप से अपनी भूमिका निभाता है। यह कहना अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं होगा कि धर्म के बिना मोक्ष, अर्थ एवं काम तीनों ही निराधार हो जाते हैं।
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अध्याय 12: धार्मिक-व्यवहार-प्रबन्धन
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