Book Title: Jain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Author(s): Manishsagar
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 771
________________ 65 12.5 जैनधर्म एवं जैनआचारमीमांसा के आधार पर धार्मिक-व्यवहार -प्रबन्धन जैनधर्म एवं जैनआचारमीमांसा में धार्मिक व्यवहार प्रबन्धन के दो पक्ष बताए हैं – सैद्धान्तिक एवं प्रायोगिक। जहाँ सैद्धान्तिक पक्ष धार्मिक-व्यवहारों का सम्यक नियोजन करने हेतु सूत्र प्रदान करता है, वहीं प्रायोगिक पक्ष उन सूत्रों को सफलतापूर्वक जीवन में क्रियान्वित करने हेतु मार्गदर्शन देता है। दोनों पक्षों का सम्यक् समन्वय करके ही धार्मिक व्यक्तित्व का निर्माण होता है। कहा भी गया है - जिस प्रकार एक पहिए से रथ नहीं चल सकता, उसी प्रकार मात्र ज्ञान या मात्र आचरण से लक्ष्य की सिद्धि नहीं हो सकती, लक्ष्य प्राप्ति के लिए दोनों का समन्वय जरुरी है। 12.5.1 धार्मिक-व्यवहार-प्रबन्धन का सैद्धान्तिक पक्ष धार्मिक-व्यवहार-प्रबन्धन के लिए सर्वप्रथम हमें सैद्धान्तिक पक्ष के माध्यम से धर्म के बारे में अपने ज्ञान और दृष्टिकोण को समीचीन करना होगा। हमें यह समझना होगा कि धार्मिक-व्यवहार–प्रबन्धन क्या है? क्यों आवश्यक है? इसके लिए किन साधनों को स्वीकार करना चाहिए और किनका परिहार करना चाहिए? इत्यादि। वस्तुतः, जैनदृष्टि में सदैव ज्ञान को प्राथमिकता दी गई है। दशवैकालिकसूत्र में स्पष्ट कहा है कि प्रथम ज्ञान होना आवश्यक है, उसके पश्चात् अहिंसा आदि जीवन-व्यवहार। धार्मिक-व्यवहार–प्रबन्धन हेतु जिन सिद्धान्तों को जानना आवश्यक है, वे इस प्रकार हैं - 12.5.2 धार्मिक-व्यवहार-प्रबन्धन क्या है? __जीवन को धर्ममय बनाने की प्रक्रिया ही धार्मिक-व्यवहार-प्रबन्धन है, किन्तु इसका अर्थ केवल जादू-टोने अथवा अन्धरूढ़ि एवं अन्धविश्वास पर आधारित कुछ अनुष्ठान करना नहीं है। यह भी सोचना गलत होगा कि पूजा, अर्चनादि कुछ धर्म-कृत्यों को करने मात्र से हमारा धार्मिक-व्यवहार-प्रबन्धन सम्बन्धी दायित्व पूर्ण हो जाएगा। वस्तुतः, धार्मिक व्यवहारों के प्रबन्धन का तात्पर्य उस प्रक्रिया से है, जिससे गुजर कर हमारे जीवन में नैतिक एवं आध्यात्मिक मूल्यों का सम्यक् विकास हो सके। इस प्रक्रिया के अन्तर्गत तीन कार्य क्रमशः करने योग्य हैं - 1) अशुभ भावों से निवृत्त होना, जैसे - क्रोध, ईर्ष्या, वैर, हिंसा, अहंकार एवं अन्य स्वार्थपरक (दोषपूर्ण) व्यवहार। 2) शुभ भावों में प्रवृत्त होना, जैसे - दया, करुणा, कोमलता, सरलता, स्वाध्याय, भक्ति आदि सद्व्यवहार। 3) शुद्ध भावों का अभ्यास करना यानि आत्मरमणता, स्वरूप रमणता, साक्षीभाव, ज्ञाता-दृष्टा भाव, अकषायगुण आदि का प्रयत्न करना। 669 अध्याय 12: धार्मिक-व्यवहार-प्रबन्धन Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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