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की बात भले ही कर रहे हों, लेकिन अपने-अपने गच्छ, मत, पन्थ की रूढ़ियों का दुराग्रह नहीं छोड़ पा रहे हैं। इन मोह-ग्रस्त जीवों के बारे में सन्त आनन्दघनजी कहते हैं -
गच्छनां भेद बहु नयण निहालतां, तत्त्वनी वात करतां न लाजे।
उदरभरणादि निज काज करतां थकां, मोह नडिया कलिकाल राजे।।
जैनशास्त्रों में दृष्टि की संकीर्णता को 'दृष्टि-राग' बताया गया है। इसके फलस्वरूप व्यक्ति मतान्ध होकर स्वमत का स्थापन (मण्डन) और परमत का उत्थापन (खण्डन) कर रहा है। कट्टरता इतनी बढ़ गई है कि मानव-धर्म और मानव जाति का अस्तित्व ही खतरे में है, क्योंकि सभी अपना वर्चस्व चाहते हैं और धर्म के नाम पर आतंकवाद, नरसंहार, दंगे-फसाद करने से भी नहीं हिचक रहे हैं। वस्तुतः, धर्म तो निराकुलता और समाधि का मार्ग है, लेकिन सांप्रदायिकता के बढ़ने से धर्म के नाम पर हिंसा, झूठ आदि पापकृत्य हो रहे हैं।
वर्तमान परिवेश में जैनदर्शन की धार्मिक-साहिष्णुता वाली दृष्टि को अपनाने की आवश्यकता है, जो संप्रदाय से ऊपर उठकर धर्म को आत्मसात् करने की प्रेरणा देती है। आचार्य हेमचन्द्र ने कहा भी है – जिन्होंने राग-द्वेष आदि का क्षय कर दिया हो, वे चाहे ब्रह्मा हों, विष्णु हों, शिव हों या जिन हों, उन्हें नमस्कार है। श्री सत्यनारायणजी गोयनका के शब्दों में7
धर्म न हिन्दु बौद्ध है, धर्म न मुस्लिम जैन।
धर्म चित्त की शुद्धता, धर्म शांति सुख चैन।। (2) आलम्बन के स्थान पर आडम्बर को ही धर्म माना जा रहा है -
वर्तमान युग में सुविधा और विलासिता के प्रति व्यक्ति का प्रेम बढ़ रहा है। वह धार्मिक स्थलों पर भी भव्य मण्डप एवं मंच का निर्माण, वातानकलित धर्मशाला का निर्माण, आकर्षक रोशनी. आतिशबाजी, गरिष्ठ भोजन आदि आडम्बरों को बढ़ावा दे रहा है। परिणाम यह है कि धर्मस्थानों पर भी हम भोगों के संस्कारों को ही प्रगाढ़ कर रहे हैं। धर्म का मूल सम्बन्ध तो सदाचार से है, लेकिन हम धर्म के नाम पर आचारहीन होते जा रहे हैं। उत्तराध्ययनसूत्र में सादगीपूर्ण ढंग से धर्म करने पर जोर देते हुए कहा गया है58 – धर्म की धुरा को खींचने के लिए धन की क्या आवश्यकता है? धर्म के लिए तो सदाचार ही अपेक्षित है, लेकिन हमने आज धर्म की बागडोर धनवानों को सौंप दी है। (3) धर्म को मनोरंजन का साधन माना जा रहा है -
आज धर्म करने का अर्थ केवल कुछ समय का मनोरंजन मात्र है। जैसे मनोरंजन के लिए व्यक्ति हास्य, गपशप आदि करता है, वैसे ही धार्मिक स्थलों पर भी वह धार्मिक तम्बोला, अन्ताक्षरी आदि खेलों द्वारा अपना मनोरंजन करता है। तीर्थ स्थानों को भी पिकनीक-स्पॉट अथवा हिल स्टेशन जैसा मानकर घूमने-फिरने जाता है। धार्मिक सभाओं में भी उपदेश-श्रवण के लिए नहीं, अपितु मन 665
अध्याय 12 : धार्मिक-व्यवहार-प्रबन्धन
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