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12.1 धर्म की अवधारणा
जीवन का सम्यक् प्रबन्धन करने के लिए धार्मिक व्यवहारों को भी सुनियोजित करना अत्यावश्यक है और इस हेतु सर्वप्रथम हमें धर्म के सच्चे अभिप्राय को समझना होगा। भारतीय संस्कृति विशेषतः जैन - संस्कृति में 'धर्म' शब्द का प्रयोग भिन्न-भिन्न प्रसंगों में भिन्न-भिन्न अर्थों में हुआ है, अतः धर्म के सम्यक् स्वरूप का निर्धारण करने के लिए हमें धर्म को उसके व्यापक अर्थों में ग्रहण करना होगा ।
धार्मिक-व्यवहार-प्रबन्धन
(Religious Behaviour Management)
(1) वस्तु - स्वभाव (Nature) जैनाचार्यों ने कहा है 'वत्थु सहावो धम्मो' अर्थात् वस्तु का स्वभाव ही धर्म है।' आशय यह है कि प्रत्येक वस्तु का स्वाभाविक गुण उसका धर्म है, जैसे आग का धर्म जलाना है, पानी का धर्म शीतलता है इत्यादि ।
अध्याय 12
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( 2 ) कर्त्तव्य (Duty) पाइयसद्दमहण्णवो में धर्म का एक अर्थ कर्त्तव्य बताया गया है, 2 अतः प्रत्येक व्यक्ति के जो भी करने योग्य लौकिक एवं लोकोत्तर दायित्व हैं, उन्हें धर्म मानना चाहिए, जैसे • माता-पिता की सेवा करना सन्तान का धर्म है, विद्यार्थी को शिक्षा देना शिक्षक का धर्म है इत्यादि ।
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( 3 ) जीवदया (Nonviolence ) कहा गया है 'जीवाणं रक्खणं धम्मो' अर्थात् जीवों की रक्षा करना धर्म है। यह जीवदया या जीवरक्षा बाह्य में यतनापूर्वक प्रवृत्ति और अंतरंग में आत्मजागृतिपूर्वक जीने के अर्थ है, क्योंकि इससे बाह्य में षड्जीवनिकाय की रक्षा होती है एवं अंतरंग में आत्मतत्त्व की । इसकी श्रेष्ठता को प्रतिपादित करते हुए कहा गया है कि जैसे जगत् में मेरूपर्वत से ऊँचा तथा आकाश से विशाल और कुछ नहीं है, वैसे ही अहिंसा के समान कोई धर्म नहीं
है ।
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(4) संविधान (Constitution)
'धर्म' शब्द का प्रयोग 'संविधान' या 'कानून' अर्थ में भी होता
है । आचारांग का यह सूत्र 'आणाए मामगं धम्मं' अर्थात् जिनाज्ञा का पालन करना धर्म है, इस बात
अध्याय 12: धार्मिक-व्यवहार-प्रबन्धन
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