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12.2.2 धर्म के महत्त्व के विभिन्न दृष्टिकोण
इस तथ्य को निम्न बिन्दुओं के द्वारा समझा जा सकता है - (1) आध्यात्मिक दृष्टि से धर्म का महत्त्व - धर्म की मूल दृष्टि आध्यात्मिक विकास की है, जिसका अनुसरण कर हम आत्मिक-सुख की प्राप्ति कर सकते हैं। परन्तु भौतिक-सुख से आकर्षित होकर मृग-तृष्णा के समान हम बाह्य में सुख खोजते रहते हैं और सदैव अतृप्त बने रहते हैं। वस्तुतः, सुख बाह्य वस्तुओं में नहीं, अपितु आत्मा का ही स्वभाव (धर्म) है और आत्मा से ही प्राप्य है। जैसे-जैसे आत्मा विभाव से स्वभाव की ओर लौटती जाती है, वैसे-वैसे आत्मिक-सुख की उपलब्धि बढ़ती जाती है। दूसरे शब्दों में, जैसे-जैसे राग-द्वेष की विषमता मिटती जाती है, वैसे-वैसे आत्मा समता में सुस्थित होती जाती है और इससे समस्त तनावों एवं दुःखों से मुक्ति मिल जाती है।
इस प्रकार धर्म ही एकमात्र साधन है, जो भौतिक सुखों के मोहपाश से छुड़ाकर आत्मिक-सुख का सेवन कराता है। (2) मनोवैज्ञानिक दृष्टि से धर्म का महत्त्व - मानव का मन अश्व के समान चारों ओर दौड़ता रहता है, किन्तु यदि उसे धर्म के द्वारा नियंत्रित एवं नियमित कर दिया जाए, तो यही मन स्थिरता और पवित्रता को प्राप्त होता है। इससे विचार, कल्पना, स्मरण आदि शक्तियों की विशेष अभिवृद्धि होती है। उचित-अनुचित का मानसिक विश्लेषण भी सम्यक्तया हो पाता है। व्यक्ति अपने जीवन के आत्मिक एवं व्यावहारिक पहलुओं के बारे में अधिक कुशलता के साथ चिन्तन, मनन एवं निर्णय कर पाता है। (3) शैक्षणिक दृष्टि से धर्म का महत्त्व - शिक्षा व्यक्ति के सर्वांगीण विकास का आधार है, परन्तु धर्म के अनुशासन में रहे बिना वह सम्यक् शिक्षा का अर्जन नहीं कर सकता। धर्म के माध्यम से वह कुसंस्कारों एवं उद्दण्डतापूर्ण व्यवहारों से बचकर शिक्षा के प्रति अधिक गम्भीर, एकाग्र, सजग एवं समर्पित हो सकता है। वह अपने अमूल्य समय , धन एवं ऊर्जा के अनावश्यक अपव्यय को भी रोक सकता है और इस तरह सर्वांगीण-शिक्षा की प्राप्ति का सम्यक् प्रबन्धन कर सकता है। (4) आर्थिक दृष्टि से धर्म का महत्त्व - अर्थ जीवन की एक आवश्यकता है, किन्तु यदि धर्म का नियन्त्रण न हो, तो अर्थ ही अनर्थ का कारण बन जाता है। इससे भ्रष्टाचार, झूठ-फरेब, घोटाले, विश्वासघात आदि अनेक विसंगतियाँ पैदा हो जाती हैं, जिन्हें रोकने के लिए धर्म के नैतिक सिद्धान्तों का पालन अत्यन्त जरूरी है। जैनधर्म में निर्दिष्ट अहिंसा आदि व्रतों का पालन करके व्यक्ति अपनी आर्थिक नीति का सम्यक प्रबन्धन कर सकता है। वह धर्म से मर्यादित अर्थोपार्जन करता हुआ आध्यात्मिक विकास के पथ पर अग्रसर हो सकता है। (5) पर्यावरणीय दृष्टि से धर्म का महत्त्व - यह धर्म तत्त्व ही है, जो हमारी असीम तृष्णा को मर्यादित कर सादगीपूर्ण जीवन जीने की प्रेरणा देता है। इससे सहज ही भौतिक-पर्यावरण के सीमित
जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व
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