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★ चिन्तामणि, दिव्य निधियाँ, कामधेनु और कल्पवृक्ष , ये सभी धर्म के चिरकालीन अनुचर हैं।26 ★ धर्म के समान निधि नहीं है। ★ धर्म के दो प्रयोजन हैं – दुःख को दूर करना और सुख को प्राप्त कराना। अतः हम चाहे सुखी हों अथवा दुःखी, दोनों ही अवस्था में हमें धर्म का आचरण करना चाहिए, क्योंकि यदि हम सुखी हैं, तो धर्म से हमारा सुख वृद्धिगत होगा और यदि हम दुःखी हैं, तो उससे हमारे दुःखों
का विनाश होगा।28 ★ संसार में जितने भी भौतिक सुख हैं, वे एकमात्र धर्मरूपी उद्यान में स्थित क्षमा, मृदुता आदि वृक्षों के ही फल हैं। अतः धर्म-उद्यान के वृक्षों की भलीभाँति रक्षा करनी चाहिए, जिससे भविष्य
में आत्मिक सुख एवं शान्ति रूपी फलों की प्राप्ति होती रहे। ★ धर्म से भौतिक सुख का विनाश होता है - यह कल्पना भ्रमपूर्ण है, क्योंकि धर्म सुख का कारण
है और कारण कभी अपने कार्य का विरोधी नहीं होता, अतः सुखनाश के भय से धर्मविमुख नहीं होना चाहिए। ★ कल्पवृक्ष का फल याचना से और चिन्तामणि का फल विचार करने से प्राप्त होता है, किन्तु धर्म
से जो फल प्राप्त होता है, वह बिना याचना और कल्पना किए ही प्राप्त हो जाता है, जैसे - यदि मनुष्य सघनवृक्ष के नीचे पहुँचता है, तो छाया स्वयमेव प्राप्त होती है, उसके लिए वृक्ष से याचनादि नहीं करनी पड़ती।"
जाँचे सुरतरु देय सुख, चिन्तत चिन्ता रैन।
बिन जाँचे बिन चिन्तये, धर्म सकल सुख दैन।।2 ★ जो प्राणी अज्ञानवश धर्म को नष्ट करके विषय-सुखों में रत रहते हैं, वे मानों वृक्षों को जड़ से उखाड़कर फलों की प्राप्ति करना चाहते हैं।
उपर्युक्त सूक्तियाँ इस बात को स्पष्ट करती हैं कि धर्म का हमारे जीवन से गहरा सम्बन्ध है। यदि हम सही अर्थों में धर्म को जीवन में अपना लें, तो यह इसलोक और परलोक दोनों के लिए हितकारी है। धर्मबिन्दु ग्रन्थ में भी धर्म के दोनों प्रकार के फलों का वर्णन करते हुए आचार्य कहते हैं कि रागादि भावों के उपद्रवों से मुक्त होना और समता, सहिष्णुता आदि सद्भावों के वैभव को प्राप्त करना , धर्म का 'अनन्तर फल' (Immediate Gain) है और संसार परिभ्रमण से मुक्त होकर परमसुख रूप निर्वाण पद की प्राप्ति करना, धर्म का ‘परम्पर फल' (Ultimate Gain) है।
__यह मान्यता गलत है कि धर्म निरर्थक एवं कष्टकारी है और वर्तमान जीवन में इससे आर्थिक, भौतिक, सामाजिक, राजनीतिक, पारिवारिक आदि पहलू असन्तुलित हो जाते हैं। वस्तुतः, धर्म वह कला है, जिसके द्वारा उक्त सभी पहलुओं को सन्तुलित , सुव्यवस्थित एवं उन्नत बनाया जा सकता है और इसीलिए जीवन-प्रबन्धन हेतु धर्म का भी महत्त्वपूर्ण स्थान है।
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अध्याय 12 : धार्मिक-व्यवहार-प्रबन्धन
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