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निर्वहन करना। कहा भी गया है 211
6) अशुभ प्रवृत्तियों को दूर करके पूजा, भक्ति, स्वाध्याय, ध्यान एवं कायोत्सर्ग आदि शुभ प्रवृत्तियों में संलग्न रहना ।
7) अशुभ भावों को दूर करके प्रशम (क्षमा), संवेग (पापभीरुता), निर्वेद (वैराग्य), अनुकम्पा (दया)
एवं आस्तिक्य (तत्त्व-श्रद्धा) आदि शुभ भावों की अभिवृद्धि करना ।
8) आत्मिक - स्थिरता रूप शुद्ध भावों की अभिवृद्धि करना अर्थात् अकषाय-वृत्ति सह ज्ञाता - दृष्टा भाव से जीने का अभ्यास करना ।
9) तीव्रतम इच्छा से मन्दतम इच्छा वाली जीवनशैली का विकास करना ।
10) अधिकतम आवश्यकता से अल्पतम आवश्यकता की ओर बढ़ना ।
11) अंतरंग में अप्रत्याख्यानी कषाय के निवारण हेतु प्रयत्न करना ।
12) बहिरंग में धन-धान्यादि परिग्रहों के सीमाकरण का उपाय करना । 3) तृतीय भूमिका : मन्दतराकांक्षी
यह अर्थ–प्रबन्धक का तृतीय सोपान है, जिसमें उसकी आत्म-शक्तियाँ पूर्वापेक्षा अधिक विकसित हो जाती हैं तथा इच्छाओं का मूल स्रोत 'अल्प' प्रकार का हो जाता है। वह अर्थ एवं काम पुरूषार्थ से पूर्णरूप से विरक्त न होकर भी आंशिक रूप से तो विरक्त हो ही जाता है। अतएव उसे मन्दतराकांक्षी कहना उचित होगा ।
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वह अर्थ-प्रबन्धक गृहस्थपने में रहता हुआ बारह व्रतों को अंगीकार करके अर्थ एवं भोग के पुरूषार्थ को मर्यादित कर लेता है ।
श्रावक के बारह व्रत 212
1) अणुव्रत
i)
पंच दोषों का आंशिक त्याग करने रूप व्रत। इसके पाँच प्रकार हैं अहिंसा अणुव्रत
स्थूल हिंसा का त्याग करना ।
ii) सत्य अणुव्रत iii) अचौर्य अणुव्रत iv) स्वदारा - सन्तोषव्रत
परिग्रह - परिसीमन व्रत परिग्रह का परिमाण करना ।
सम्यग्दृष्टि जीवड़ा, करे कुटुम्ब प्रतिपाल । अन्तर सुं न्यारो रहे, जिम धाय खिलावे बाल ।।
2) गुणव्रत
i)
ii)
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अणुव्रतों का संरक्षण एवं संवर्धन करने रूप व्रत। इसके तीन प्रकार दिशा - परिमाण व्रत - दिशाओं में गमनागमन की मर्यादा करना । उपभोग- परिभोग - परिमाण व्रत उपभोग तथा परिभोग की मर्यादा करना ।
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स्थूल असत्य का त्याग करना ।
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• स्थूल चोरी का त्याग करना ।
स्वदारा में सन्तोष करना एवं मैथुन की मर्यादा करना ।
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जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व
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