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(6) अर्थ का केन्द्रीकरण - आज पूंजीवादी अर्थ-व्यवस्था के कारण समाज का एक वर्ग तो अत्यधिक समृद्ध है, जबकि उससे कई गुना बड़ा एक दूसरा वर्ग है, जो अत्यधिक निर्धनता का जीवन व्यतीत कर रहा है। यह तथ्य सन् 2006 में प्रकाशित लेख के निम्न बिन्दुओं से स्वतः स्पष्ट है - 1) भारतवर्ष की सकल राष्ट्रीय आय का लगभग 49.50 प्रतिशत भाग तो केवल 20 प्रतिशत
सर्वाधिक धनाढ्य लोगों से सम्बन्धित होता है। 2) भारत में निजी कम्पनी का मुख्य कार्यकारी अधिकारी 15 करोड़ रूपए प्रतिवर्ष आसानी से
कमाता है, जबकि एक आम आदमी वर्ष भर में मुश्किल से 5000 रूपए कमा पाता है। 3) भारत में करोड़पतियों की संख्या वर्ष 2003 में 61 हजार थी, जो वर्ष 2009 में करीब 16 लाख
हो गई। 4) देश में 40 करोड़ लोग गरीबी रेखा से नीचे जी रहे हैं, जिन्हें जीवन-यापन करने के लिए
औसतन 77 रूपए प्रतिमाह प्राप्त हो पाता है।
इस आर्थिक केन्द्रीकरण के परिणामस्वरूप समाज में शोषक एवं शोषितों के मध्य दूरियाँ बढ़ती जा रही हैं और संघर्ष पनप रहे हैं। (7) भावनात्मक संकीर्णता की वृद्धि - भगवान् महावीर ने 'परस्परोपग्रहो जीवानाम्'50 के सूत्र के द्वारा परस्पर सहयोग, सेवा, बन्धुत्व, मैत्री आदि उदात्त भावनाओं के साथ जीने का उपदेश दिया, किन्तु आज उपभोक्तावादी-संस्कृति के प्रभावस्वरूप व्यक्ति संवेदनहीन, क्रूर, स्वार्थी, अवसरवादी और विश्वासघाती बनता जा रहा है। उत्तराध्ययनसूत्र में स्पष्ट कहा गया है - जहाँ कामभोगों में आसक्ति होती है, वहाँ व्यक्ति के व्यवहार में क्रूरता, छल-कपट, झूठ, धोखा, चालाकी आदि कुप्रवृत्तियाँ (कूट) स्वतः ही उत्पन्न हो जाती हैं। (8) समय और ऊर्जा की बरबादी - उपभोक्ता-संस्कृति के कारण व्यक्ति अनेक प्रकार की अनावश्यक क्रियाओं में व्यस्त होकर अपने अमूल्य समय और सामर्थ्य को नष्ट कर रहा है। इनमें से प्रमुख इस प्रकार हैं - 1) ब्यूटीपार्लर एवं मसाजपार्लर जाना। 2) क्लब और जुआ-घरों में जाना। 3) हेल्थ क्लब में जाना। 4) सप्ताहांत (Weekend) में पिकनिक मनाना। 5) छुट्टी के दिनों में रेस्त्रां आदि में जाना। 6) सिगरेट , बीयर, शीशा आदि मादक पदार्थों का सेवन करना। 7) मोबाईल एवं दूरभाष पर घण्टों बातचीत करना। 8) दूरदर्शन एवं चलचित्र की अतिरुचि होना।
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अध्याय 11 : भोगोपभोग-प्रबन्धन
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