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में इसका विश्लेषण प्रारम्भ हो जाता है और विषयों के प्रति प्रिय-अप्रिय, इष्ट-अनिष्ट, अनुकूल-प्रतिकूल, लाभदायक-हानिकारक आदि भावनाएँ उत्पन्न हो जाती हैं। यहीं से राग-द्वेष रूप तृष्णा (इच्छा) का जागरण होता है, जो क्रोध, मान, माया, लोभादि अनेक रूपों में अभिव्यक्त होती है। बारम्बार होने वाले अविवेकपूर्ण चिन्तन एवं बाह्य-विषयों से सुख-प्राप्ति के भ्रमित दृष्टिकोण के कारण यह तृष्णा बढ़ती चली जाती है। इससे भीतर में अतृप्ति, असन्तुष्टि एवं चंचलता का जन्म होता है, जिससे छूटकारा पाने के लिए व्यक्ति इन्द्रिय-भोगों के प्रति आकर्षित होता है।
इन्द्रिय-भोगों का सेवन करते हुए हमें अज्ञान एवं भ्रम के कारण यह महसूस होता है कि जिस वस्तु को भोगने की पूर्व में अभिलाषा की थी, उसे हमने भोग लिया है और यह विचार ही हमारे भीतर उत्पन्न हुई तृष्णा को समाप्त कर देता है। इस कारण से पूर्व में उत्पन्न हुई इच्छा, दुःख, चंचलता और असन्तुष्टि भी समाप्त हो जाती है। इसे ही लोकव्यवहार में भोगों के द्वारा तृष्णा की पूर्ति एवं तज्जन्य सुख की प्राप्ति कहा जाता है।
यदि इस पूरी प्रक्रिया का सूक्ष्म चिन्तन किया जाए, तो यह निष्कर्ष निकलता है कि हमें भोगों से सुख नहीं मिलता, अपितु भोगों का सेवन करते हुए भीतर में इच्छा की जो समाप्ति होती है, उसी से सुख मिलता है, जबकि भ्रमवश हम यह मान लेते हैं कि भोगों ने हमें सुखी किया है। वस्तुतः, हम स्वयं की इच्छाओं की उत्पत्ति से दुःखी और इच्छाओं की समाप्ति से सुखी होते रहते हैं। सच तो यह है कि बाह्य भोग का सेवन और अंतरंग तृष्णा की तुष्टि दोनों सर्वथा भिन्न-भिन्न हैं, किन्तु मोहवश इन दोनों में कारण-कार्य सम्बन्ध मान लिया जाता है। यह वैसी ही स्थिति है, जैसे सूखी हड्डी को चबाता हुआ कुत्ता उसकी तीखी नोकों से अपना तलवा कट जाने पर स्वयं के ही रुधिर का रसपान कर हड्डी से सुखी होने का भ्रम पैदा कर लेता है। यदि मैथुन-सेवन, मादक-द्रव्य–सेवन, स्वादिष्ट भोजन आदि की प्रक्रियाओं में हम सुख मिलने के मूल कारण को ढूँढे, तो हमें निश्चित ही यह महसूस होगा कि इन भोगों से सुख नहीं मिलता, अपितु तृष्णा की ज्यों-ज्यों समाप्ति होती जाती है, त्यों-त्यों सुख की अनुभूति होती जाती है।
इन बाह्य भोगों की असारता के कारण ही जैनाचार्यों ने भोगोपभोग की अभिवृद्धि के बजाय उन्हें मर्यादित करने हेतु निर्देश दिए हैं। उनके द्वारा निर्दिष्ट साधना मार्ग यही है कि पहले इच्छाओं को सात्विक करो, फिर संक्षिप्त करो और अन्त में समाप्त करो। इस प्रकार जैसे-जैसे इच्छाएँ मर्यादित होती जाएँगी, वैसे-वैसे बाह्य भोगों की आवश्यकताएँ भी सीमित होती जाएंगी।
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अध्याय 11 : भोगोपभोग-प्रबन्धन
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