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भले ही इस सुख को सुख क्यों न कहा जाए, परन्तु इस सुख में सदैव अपूर्णता बनी रहती है और अपूर्णता कभी भी सुख रूप नहीं होती, क्योंकि जहाँ चाह है, वहाँ चिन्ता है और जहाँ चिन्ता है, वहाँ तनाव या दुःख है। उत्तराध्ययनसूत्रकार कहते हैं कि 'व्यक्ति की कामनाएँ आकाश के समान असीम हैं और इस संसार के साधन सीमित हैं, अतः यदि किसी व्यक्ति को सम्पूर्ण पृथ्वी भी दे दी . तो भी इच्छाओं को परिपूर्ण करने अर्थात् उसे पूर्ण सुखी करने में वह समर्थ नहीं है। जो सुख परिपूर्ण न हो और जिसे पाने के पश्चात् भी निश्चिन्तता न हो, अपितु नवीन सुख की तृष्णा बनी रहे, उसे हम सच्चा सुख कैसे कह सकते हैं?
जाए,
व्यक्ति इस इन्द्रियाश्रित एवं पदार्थाश्रित सुख को भले ही सुख माने, लेकिन जैनाचार्यों की दृष्टि में, यह सुख सुख नहीं, अपितु दुःख ही है, क्योंकि यहाँ पराधीनता है और जहाँ पराधीनता है, वहाँ दुःख ही दुःख है । यह पराधीन और अपूर्ण सुख भी तब प्राप्त होता है, जब कुछ पुण्य का उदय हो और इन्द्रियाँ भलीभाँति भोगानुकूल कार्य करती हों । अनेक भोगीपुरूष वृद्धावस्था आने पर इसीलिए दुःखी रहते हैं, क्योंकि अब न तो उनकी इन्द्रियाँ व्यवस्थित कार्य करती हैं और न ही उन्हें भोगों के सेवन के लिए स्वतन्त्रता मिल पाती है। कहा भी गया है 'पराधीन सपनेहुँ सुख नाहीं' । "
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अध्यात्मयोगी श्रीमद्देवचन्द्रजी इस विषय - सुख की तुच्छता को प्रतिपादित करते हुए कहते हैं कि इस सुख को भोगना व्यर्थ है, क्योंकि ये विषय - सामग्रियाँ जड़ हैं, चलायमान हैं और कइयों के द्वारा पूर्व में भोगकर परित्याग की हुई जूठन हैं। उनके अनुसार, चेतन होकर जड़ भोगों का भोग करना उचित नहीं है, क्योंकि हंस भी मोती को छोड़कर कूड़ा-कर्कट, कीचड़ आदि कुत्सित वस्तुओं में चोंच नहीं मारा करता। 71
जड़ चल जगनी ऐंठनो, न घटे तुजने भोग हो मित्त ।
इन भोगों से प्राप्त सुख को हम अव्याबाध सुख भी नहीं कह सकते हैं, क्योंकि इन सुखों का सेवन करते हुए कोई न कोई बाधा तो उपस्थित होती ही रहती है रोग, तो कभी शोक आदि । 2 जहाँ बाधाएँ आती हैं, उस सुख को
कभी भूख, तो कभी प्यास, कभी सुख की संज्ञा कैसे दी जा सकती
है?
इन भोगों से व्याकुल व्यक्ति की स्थिति इस प्रकार होती है कि वह जितना - जितना भोग करता जाता है, उसकी भोग- तृष्णा भी उतनी - उतनी बढ़ती चली जाती है। यदि कोई एक बार स्त्री का भोग करता है, तो बार-बार भोगना चाहता है, यदि एक बार मिठाई खाता है, तो बार-बार खाने की इच्छा करता है, एक बार कोई सुगन्ध लेता है, तो बार-बार सुगन्ध लेने की इच्छा करता है इत्यादि । 73 जिस प्रकार से खुजली का रोगी खुजलाने पर दुःख को भी सुख मानता है, परन्तु उसका दुःख और अधिक बढ़ जाता है, उसी प्रकार से काम-भोगों की स्थिति भी होती है, अतः ऐसे सुख को क्या सुख मानना ।'
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अध्याय 11 : भोगोपभोग-प्रबन्धन
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