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है, तब उसे अशुद्ध भोगोपभोग कहा जाता है। इसके दो प्रकार हैं - अशुभ भोगोपभोग एवं शुभ भोगोपभोग । वह भोगोपभोग अशुभ कहलाता है, जिसमें व्यक्ति अशुभ भावों से युक्त होकर बाह्य विषयों में तन्मय हो जाता है, जैसे – कुविचार, कुसंगति, कुमार्ग में लीन रहना। वह भोगोपभोग शुभ कहलाता है, जिसमें व्यक्ति शुभ-भावों से युक्त होकर सात्विक प्रवृतियों में तन्मय हो जाता है, जैसे - अर्हद् भक्ति, गुरु उपासना, स्वाध्याय, संयम, तप, दान आदि में लीन होना।
संक्षेप में कहें तो, इन दोनों ही भोगोपभोग में राग-द्वेष एवं इच्छाओं का सद्भाव तो बना ही रहता है, फिर भी अशुभ-भोगोपभोग में ये राग-द्वेष एवं इच्छाएँ असात्विक (अप्रशस्त) होती हैं और चित्त की आकुलता-व्याकुलता का कारण बनती हैं, जबकि शुभ-भोगोपभोग में ये सात्विक (प्रशस्त) होती हैं और प्रसन्नता का कारण बनती हैं। जैनाचार्यों ने शुभ-भोगोपभोग को अशुभ-भोगोपभोग से ऊपर उठने एवं शुद्ध-भोगोपभोग में स्थिर होने के लिए एक सेतु या साधन के समान बताया है। इस शुभ-भोगोपभोग की विस्तृत चर्चा अध्याय बारहवें में की जाएगी। जहाँ तक अशुभ-भोगोपभोग का सवाल है, जैनाचार्यों ने इसे भूमिकानुसार अधिक से अधिक मर्यादित एवं नियंत्रित करने का सदुपदेश दिया है।
उपर्युक्त चर्चा के आधार पर भोगोपभोग-प्रबन्धन के निम्नलिखित उद्देश्यों का निर्धारण किया जा सकता है - 1) अशुभ-भोगोपभोग को अधिकाधिक मर्यादित करना। 2) अशुभ-भोगोपभोग से निवृत्ति हेतु शुभ-भोगोपभोग में प्रवृत्त होना तथा शुद्ध भोगोपभोग की प्राप्ति
हेतु शुभ भोगोपभोग से निवृत्त होना। 3) अनासक्ति की वृद्धि करते हुए शुद्ध-भोगोपभोग में अधिकाधिक रमण करना।
जैनदृष्टि के आधार पर अशुभ, शुभ और शुद्ध भोगोपभोग का विशेष स्पष्टीकरण इस प्रकार हैक्र. विशेषता /प्रकार अशुभ-भोगोपभोग शुभ-भोगोपभोग शुद्ध-भोगोपभोग 1) भोग का आधार (क्षेत्र) बाह्य परिवेश बाह्य परिवेश
अंतरंग परिवेश 2) भोग के प्रमुख साधन पाँच इन्द्रियाँ, मन एवं पाँच इन्द्रियाँ, मन एवं अन्य आत्मा
अन्य बाह्य साधन बाह्य साधन 3) भोग का तात्कालिक फल कभी हर्ष, कभी विषाद चित्त की प्रसन्नता 63 (अंशतः परमानन्द
दोषसहित) 4) भोग का दीर्घकालिक फल दुर्गतियों में भ्रमण सद्गतियों में भ्रमण का संसार-परिभ्रमण से मुक्ति 5) कर्म-बन्धन की दृष्टि से पाप कर्म
पुण्य कर्म
बन्धन मुक्त भोग का फल 6) भोग की दशा (बाह्य) प्रवृत्ति रूप
प्रवृत्ति रूप
निवृत्ति रूप 7) भोग की
सर्वथा हेय
कथंचित् हेय एवं कथंचित् परम उपादेय उचितता/अनुचितता
उपादेय 629
अध्याय 11 : भोगोपभोग-प्रबन्धन
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