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11.6.3 भोगोपभोग-प्रबन्धन की प्रक्रिया
जब भी भोगोपभोग सम्बन्धी परिस्थिति निर्मित होती है, तब हम निम्न प्रकार से चिन्तन कर सकते हैं, जो हमें भोगोपभोग-प्रबन्धन की सम्यक् दिशा में अग्रसर करेगा - (क) सम्यग्दृष्टिकोण के आधार पर चिन्तन - हमें सर्वप्रथम भोगोपभोग की निःसारता एवं दुःखदायकता का चिन्तन करना होगा और यदि सम्भव हो तो उसका परित्याग भी करना होगा। (ख) इन्द्रिय-विषय सम्बन्धी विश्लेषण के आधार पर चिन्तन - यदि भोगोपभोग की तृष्णा उपर्युक्त चिन्तन द्वारा शान्त न हो सके, तो हमें यह चिन्तन करना होगा कि यह भोगविशेष कौन-सी इन्द्रिय का विषय है और इस भोग के द्वारा हमारे शारीरिक स्वास्थ्य, पारिवारिक सम्बन्धों और सामाजिक-प्रतिष्ठादि पर क्या-क्या हानिकारक प्रभाव पड़ेगें? जैसा कि पूर्व में बताया जा चुका है कि एक-एक इन्द्रिय के भोग में फँसकर पशु गति के प्राणी अपने प्राण तक गँवा देते हैं, अतः हम यह चिन्तन कर सकते हैं कि हमें इस इन्द्रिय-विषय के आकर्षण में नहीं फँसना है। इस प्रकार हम इन्द्रिय-विषयों की निःसारता के द्वारा भोगेच्छा का प्रतिकार कर सकते हैं। (ग) अनिवार्य आदि पाँचों वस्तुओं सम्बन्धी विश्लेषण के आधार पर चिन्तन – यदि भोगोपभोग सम्बन्धी तृष्णा उपर्युक्त चिन्तन से भी शान्त न हो, तो हमें पुनः यह चिन्तन करना होगा कि वास्तविकता में यह भोग मेरे लिए अनिवार्य है या सुविधा है या अन्य। यदि यह निर्णय हो कि यह भोग अनुपयोगी है या विलासिता है या प्रतिष्ठादायी मात्र है, तो उसकी हेयता को समझकर उसका परित्याग करना चाहिए, भले ही वह वस्तु हमें सुगमता से क्यों न उपलब्ध हो। यदि वह वस्तु सुविधा रूप महसूस हो, तो भी चिन्तन करना चाहिए कि 'कहीं यह मेरी कमजोरी तो नहीं है' और सम्भव हो, तो उसका परित्याग अथवा सीमाकरण अवश्य कर लेना चाहिए। यदि वह वस्तु अनिवार्य भासित हो, तो भी यह सोचना आवश्यक होगा कि यह सचमुच में अनिवार्य है या मेरी विकृत जीवनशैली से अनिवार्य बन गई है। ऐसा चिन्तन करते हुए इसे भी यथाशक्ति मर्यादित करने का प्रयत्न करना चाहिए। (घ) नैतिक, आध्यात्मिक एवं जैविक मूल्यों के आधार पर चिन्तन - यदि उपर्युक्त विश्लेषण द्वारा भी भोग-इच्छा पूर्ण अथवा आंशिक शान्त न हो, तो यह चिन्तन करना कि इस भोग में कितने जीवों की हिंसा होती है (वस्तु के निर्माण से लेकर उपभोग की प्रक्रिया तक)। यह चिन्तन भी जरुरी होगा कि इस भोग को करने से अंतरंग में क्रोधादि कषायों की क्या स्थिति होगी, कहीं भोग के संस्कार अतिगाढ़ तो नहीं हो जाएंगे, इसके सेवन में समय का कितना अपव्यय होगा, कितना धन खर्च होगा, कितना परिश्रम करना होगा इत्यादि। ऐसा चिन्तन करते हुए विवेकपूर्वक भोगों का पूर्ण त्याग करना अथवा सीमांकन करना चाहिए।
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अध्याय 11 : भोगोपभोग-प्रबन्धन
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