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सोचा करता हूँ भोगों से, बुझ जाएगी इच्छा ज्वाला।
परिणाम निकलता है लेकिन, मानो पावक में घी डाला।। इस भोग को सुख रूप इसलिए भी नहीं कहा जा सकता है, क्योंकि इस सुख की प्राप्ति, संरक्षण एवं संवर्द्धन आदि के लिए व्यक्ति को नैतिक एवं आध्यात्मिक मूल्यों की भी उपेक्षा करनी पड़ती है। जिस सुख को पाने के लिए व्यक्ति दूसरों को दुःखी करे, उसे सुख कैसे कहा जाए? अथवा जिसकी प्राप्ति के लिए हिंसा, झूठ, चोरी आदि पापाचारों का सेवन करना पड़े, उसे सुख कैसे कहा जा सकता है? भोगों का सेवन करते हुए मानवीय संवेदनाएँ किस हद तक गिर जाती हैं, इसका एक ज्वलन्त उदाहरण स्वीडन निवासी इसाकिन जॉनसन (32 वर्ष) है, जिसने अपनी प्रेमिका (40 वर्ष) को अकारण ही बड़ी बेरहमी से मार डाला और किचन में जाकर उसके अंगों को पकाकर खा लिया। जिसमें पवित्रता एवं नैतिकता का अपलाप होता हो, ऐसे सुख की क्या कीमत?
इस प्रकार, यह मानना होगा कि अशुभ-भोगों के सेवन से प्राप्त सुख अनित्य, अशरण, अतृप्तिकारक, पापवर्धक, पराश्रित, चलायमान, लोक-जूठन, अपूर्ण, चंचल, जड़-रूप एवं अनैतिक आदि अनेकानेक दोषों से युक्त होता है और इसीलिए जैनाचार्यों ने भोगोपभोग-प्रबन्धन के लिए इस दोषपूर्ण सुख से निवृत्त होने का दृष्टिकोण बनाने हेतु बल दिया है। (2) अशुभ-भोगोपभोग से सुख नहीं, सुखाभास की प्राप्ति - भोगोपभोग के बारे में हमारा यह मानना भी गलत है कि भोगों से सुख प्राप्त होता है, वस्तुतः जैनाचार्य यह मानते हैं कि सुख-दुःख का कारण बाह्य वस्तु, व्यक्ति या परिस्थिति नहीं, अपितु हम स्वयं ही हैं।"
भोगोपभोग का और अधिक विश्लेषण करें, तो चार प्रकार की मान्यताएँ प्रचलित हैं - 1) बाह्य जगत् से सुख की प्राप्ति अथवा 2) बाह्य जगत् से दुःख की प्राप्ति अथवा 3) बाह्य जगत् से कभी सुख – कभी दुःख की प्राप्ति अथवा 4) बाह्य जगत् से न सुख, न दुःख की प्राप्ति
इनमें से प्रथम तीन प्रकार की मान्यता वाले व्यक्ति बाह्य जगत् के भोगों से प्रभावित होकर सुख-दुःखमय जीवन बिताते रहते हैं, किन्तु अन्तिम मान्यता वाले व्यक्ति संसार के भोगों से अनासक्त होकर जीवन-यापन करते हैं और आत्मसुख की प्राप्ति करते रहते हैं। भोगोपभोग-प्रबन्धन की दृष्टि से यह चौथा दृष्टिकोण ही अनुकरणीय है।
प्रश्न उठ सकता है कि जब बाह्य भोगों में सुख-दुःख नहीं है, तो इनका सेवन करते हुए सुख-दुःख की अनुभूति क्यों और कैसे होती है? इस प्रश्न का निराकरण करने हेतु आध्यात्मिक-दृष्टि से भोगोपभोग की प्रक्रिया का विश्लेषण करना आवश्यक होगा।
सर्वप्रथम इन्द्रिय अथवा मन के माध्यम से स्पर्शादि विषयों का ज्ञान होता है, तत्पश्चात् अंतरंग 20
जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व
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