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अशुभ- भोगोपभोग, जो प्रस्तुत अध्याय की मुख्य विषय-वस्तु है, की हेयता का सम्यग्ज्ञान हुए बिना भोगोपभोग की मर्यादा की बात करना व्यर्थ होगा । वस्तुतः, इस सन्दर्भ में अधिकांश लोगों के मन में यह भ्रामक मान्यता बनी हुई है कि इन्द्रियों के मधुर विषयों को भोगकर ही हमें सुख की प्राप्ति होती है। यह मान्यता भले ही कितनी भी प्रगाढ़ क्यों न हो, जैनाचार्यों की दृष्टि में किसी भी रूप में उचित नहीं है, क्योंकि सुख वस्तुगत नहीं, आत्मगत है । यदि व्यक्ति निम्न बिन्दुओं का विवेकपूर्ण चिन्तन-मनन करे, तो निश्चित ही उसे अशुभ भोगोपभोगों की निरर्थकता एवं तुच्छता की सम्यक् अनुभूति हो सकेगी
11.5.2 अशुभ भोगोपभोग की निरर्थकता, जैनदृष्टि का आधार
यद्यपि सुख की कल्पना में ही हम काम - भोगों की अभिलाषा करते हैं और काम-भोगों की प्राप्ति होने पर हमें सुख की अनुभूति भी होती है, फिर भी यह एक भ्रम है, क्योंकि जैनाचार्यों की दृष्टि में इन काम-भोगों में निम्न कमियाँ या दोष हैं
(1) काम - भोगों से प्राप्त सुख सच्चा सुख नहीं इन्द्रियों के स्पर्शादि विषयों के सुख को सुख कहना ही गलत है, क्योंकि इसका प्रारम्भ सदैव चंचलता, आतुरता एवं दुःख से ही होता है। जैसे ही कोई विषय यथार्थ या कल्पना रूप में हमारे समक्ष उपस्थित होता है और वह प्रिय लगने लगता है, वैसे ही तृष्णा का जन्म होता है और तृष्णा के साथ ही दुःख की परम्परा प्रारम्भ हो जाती है। तृष्णा की पूर्ति के लिए व्यक्ति को कई बार अथक परिश्रम करना एवं कष्ट सहना पड़ता है, फिर भी कई बार अभीष्ट भोगों की प्राप्ति नहीं हो पाती। कई बार स्वयं को प्राप्त न होकर किसी अन्य को प्राप्त हो जाते हैं। इन सब स्थितियों में व्यक्ति दुःखी और बेचैन होता रहता है, तब कैसे हम इन भोगों को सुख रूप कह सकते हैं?
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कदाचित् अभीष्ट भोगों की प्राप्ति हो भी जाती है, तब भी इनका सेवन करने पर जो सुख प्राप्त होता है, वह स्थायी नहीं होता, अपितु बिजली की चमक के समान क्षणभंगुर होता है।' व्यक्ति जितना-जितना इसका सेवन करते जाता है, उतना - उतना सुख कम होता चला जाता है और एक सीमा के पश्चात् यह दुःख का हेतु बन जाता है। कहा भी गया है"
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व्यक्ति भले ही हाथी, घोड़े, धन, वैभव आदि भोग सामग्रियाँ प्राप्त कर ले, तो भी पाप कर्मों का आदि) के प्राप्त होने पर वह इन
सामग्रियाँ भी उसका संरक्षण
उदय होने पर अर्थात् प्रतिकूल परिस्थितियों (रोग, शोक, दुःख, मृत्यु भोगों का स्वामी होता हुआ भी असहाय एवं बलहीन हो जाता है। करने में समर्थ नहीं होती। कभी व्यक्ति इन्हें छोड़कर चला जाता है, तो कभी ये व्यक्ति को छोड़कर चली जाती हैं। 7
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सुख प्राप्त करतां सुख टळे छे, लेश ए लक्षे लहो । क्षण-क्षण भयंकर भाव मरणे, कां अहो राची रहो?
जीवन- प्रबन्धन के तत्त्व
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