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अर्थात् इन तुच्छ भोगों के कटु परिणामों को जानकर साधक सहज ही दैवीय एवं मानवीय विषय-भोगों से विरक्त हो जाता है।
यद्यपि यह सत्य है कि ज्ञान का सार 'आचरण' ही है, 97 तथापि सभी व्यक्ति विषयभोगों से सर्वथा विरक्त नहीं हो सकते, अतः जैनआचारशास्त्रों में भोगोपभोग को मर्यादित एवं नियंत्रित करने का दिशा-निर्देश भी दिया गया है। इसे जानने के लिए हमें भोगोपभोग - प्रबन्धन के प्रायोगिक पक्ष को समझना होगा और यह देखना होगा कि किस प्रकार से और किस क्रम से व्यक्ति को अपनी भूमिकानुसार यह अशुभ- भोगोपभोग से निवृत्ति और शुभ- भोगोपभोग रूपी सेतु के द्वारा शुद्ध-भोगोपभोग में प्रवृत्ति करनी चाहिए । यहाँ शुद्ध-भोगोपभोग से हमारा तात्पर्य अनासक्तिपूर्वक होने वाली सहज अनुभूति का आस्वादन है ।
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जीवन- प्रबन्धन के तत्त्व
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