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आगामी 15-20 वर्षों में विश्व का हर चौथा व्यक्ति तनाव, अवसाद आदि में से किसी न किसी व्याधि से ग्रसित होगा। कहा भी गया है -
नर नारी रहते जहाँ, विषय भाव में लीन।
'साधक' उनको छोड़ते, धर्म स्वास्थ्य धन तीन ।। (4) प्राकृतिक-असन्तुलन और पर्यावरण प्रदूषण की वृद्धि - उपभोक्तावाद अधिकतम उपभोग के लिए अधिकतम उत्पादन को प्रोत्साहित करता है, किन्तु अधिकतम उत्पादन का अर्थ है - प्राकृतिक संसाधनों का अधिकाधिक दोहन और ऊर्जा की अत्यधिक खपत। इससे आज वनों की कटाई, भूमि का क्षरण, पेयजल की कमी, CO, गैस की वृद्धि, रेडियोधर्मी विकिरण, वैश्विक ताप-वृद्धि, समुद्री जल-स्तर की वृद्धि , प्राकृतिक आपदा आदि समस्याएँ समाज के लिए चिन्तनीय मुद्दा बन चुकी हैं। वस्तुतः, यह उपभोक्ता-संस्कृति व्यक्ति को शनैः-शनैः सर्वविनाश की ओर ले जा रही है। जीवन-अस्तित्व के इस खतरे को जैनाचार्यों ने इन पंक्तियों में इंगित किया है -
जे लोयं अब्भाइक्खइ, से अत्ताणं अब्भाइक्खइ।
जे अत्ताणं अब्भाइक्खइ, से लोयं अब्भाइक्खइ।। ___ जो लोक के अस्तित्व को नकारता है, वह अपने अस्तित्व को नकारता है और जो अपने अस्तित्व को नकारता है, वह लोक के अस्तित्व को नकारता है। (5) पारिवारिक एवं सामाजिक विघटन - उपभोक्ता-संस्कृति ने आज मनुष्य के पारस्परिक सम्बन्धों को भी तहस-नहस कर दिया है। उपभोक्ता-संस्कृति के अग्रज राष्ट्र अमेरिका में सामाजिक स्थिति की बदहाली, शिकागो विश्वविद्यालय के 24 नवबंर 1999 को प्रस्तुत, निम्न तथ्यों से झलकती है -
★ परिवारों के संचालन एवं लालन-पालन हेतु विवाह-संस्था का महत्त्व घट जाना। ★ सन् 1960 में अविवाहित माताओं की संख्या 5 प्रतिशत थी, जो सन् 1996 में बढ़कर 32
प्रतिशत हो गई। ★ इन्हीं छत्तीस वर्षों में तलाक का प्रतिशत दुगुना हो गया। ★ सन् 1972 में 72 प्रतिशत बच्चे अपने माता-पिता के साथ रहते थे, जबकि सन् 1996 में मात्र ____52 प्रतिशत। ★ सन् 1972 में 45 प्रतिशत माता-पिताओं के बच्चे नहीं थे और यह तथ्य विवाहित स्त्री-पुरूषों
की बच्चों के प्रति अरुचि का स्पष्ट द्योतक है। ★ यहाँ पर शादी के पहले भी शादीशुदा जैसा जीवन बिताने की परम्परा कई लोगों में देखी जाती
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जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व
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