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तृष्णा को जीतने के लिए प्रयत्नशील रहता है और तृष्णा-मुक्ति ही उसका परम उद्देश्य बन जाता है। इस प्रकार उसकी इच्छाओं का स्रोत अब 'ससीम' (सीमा सहित) प्रकार का हो जाता है। यद्यपि मान्यता-शुद्धि होने पर भी उसमें चारित्रिक अशुद्धियाँ (कषाय) विद्यमान रहती ही हैं, जिनका कारण पूर्व के संस्कार एवं वर्तमान पुरूषार्थ की कमजोरी होती है।
___ चारित्र में अशुद्धि होने से प्रतिसमय उसकी इच्छाओं की उत्पत्ति भी होती रहती है जिसका उसे खेद भी रहता है। तरतमता के आधार पर जिनके चार विभाग हो सकते हैं - 1) ससीम प्रकार की तीव्रतम इच्छा
3) ससीम प्रकार की मन्द इच्छा 2) ससीम प्रकार की तीव्र इच्छा
4) ससीम प्रकार की मन्दतम इच्छा इन इच्छाओं की तीव्रता-मन्दता के कारण ही कोई शान्त , प्रसन्न एवं सुखी प्रतीत होता है, तो कोई अति अशान्त, व्याकुल एवं दुःखी। फिर भी, प्रथम सोपान की अपेक्षा इस भूमिका में दुःख अल्प होता है। इतना ही नहीं, इसी सोपान से आत्म-सुख का आंशिक रसास्वादन भी प्रारम्भ हो जाता है।
इन इच्छाओं पर आधारित आवश्यकताएँ पूर्ववत् चार प्रकार की होती हैं - 1) अधिकतम 2) अधिक 3) अल्प
4) अल्पतम यद्यपि प्रथम सोपान की तुलना में इसमें स्थित व्यक्ति की आवश्यकताएँ सामान्यतया अल्प ही होती हैं, तथापि इसमें भी अल्पतम आवश्यकता वाला जीवन ही श्रेष्ठ है।
आध्यात्मिक-विकास की अपेक्षा से यह दशा अविरत-सम्यग्दृष्टि नामक चतुर्थ गुणस्थान कहलाती है। इसमें नियमतः अविरति, प्रमाद, कषाय एवं योग - ये चारों दोष होते ही हैं। अंतरंग परिग्रह इक्कीस एवं बाह्य परिग्रह नौ होते हैं। पूर्व सोपान की अपेक्षा से प्रायः इसमें अशुभ भावों की मन्दता, शुभ भावों की अभिवृद्धि तथा शुद्ध (शुभाशुभ रहित) भावों का प्रारम्भ भी हो जाता है। परिणामतः परलोक में देवगति (पूर्व में आयु–बन्ध न हुआ हो तो) की ही प्राप्ति होती है।
धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष - इन चारों पुरूषार्थों का सह-अस्तित्व होता है। यद्यपि बाह्य-व्यवहार में अर्थ एवं काम ही दृष्टिगोचर होते हैं, तथापि अंतरंग परिणति में कषाय-मुक्ति ही प्रबन्धक का परम उद्देश्य होता है। उसके जीवन में धर्म न केवल अर्थ एवं भोग को नियंत्रित करता है, बल्कि मोक्षानुकूल भी रहता है (देखें सारणी – 01, पृ. 75)।
इस भूमिका में स्थित प्रबन्धक को निम्न कार्य करने चाहिए - 1) नवतत्त्वों एवं षड्द्रव्यों के चिन्तन, मनन एवं निर्णय का पुनरावर्तन करना। 2) सम्यग्दर्शन की स्थिरता का एवं चारित्र-शुद्धि (कषाय-निवृत्ति) का अभ्यास करना। 3) अधर्म-आश्रित जीवन-व्यवहार से निवृत्ति की भावना करना। 4) अर्थ एवं भोग वृत्तियों को निर्मल बनाने के लिए उन्हें धर्म-समन्वित करना।
5) यदि गृहस्थपने में है, तो निष्काम भाव से परिवार-कुटुम्ब तथा समाजादि के कर्तव्यों का 597
अध्याय 10 : अर्थ-प्रबन्धन
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