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(3) पूर्वकृत कर्मों के फल के रूप में – बृहद्रव्यसंग्रह के अनुसार, अंतरंग में सुख और दुःख को उत्पन्न करने वाले पूर्व में बाँधे हुए (संचित) कर्मों का फल भोग है।' (4) इन्द्रिय-अर्थ-सम्बन्ध के रूप में - द्वात्रिंशद्वात्रिंशिकावृत्ति के अनुसार, इन्द्रियों और उनके अभीष्ट विषयों के मध्य सुखकर पारस्परिक सम्बन्ध भोग है। (5) सन्तुष्टि या सुखानुभूति के रूप में - वाचस्पत्याभिधान कोश के अनुसार, सुख को भोग कहते हैं। प्रायः सभी सुखवादी या भौतिकवादी विचारधाराओं, जैसे - आधुनिक अर्थशास्त्र, चार्वाक-दर्शन, वात्स्यायन-कामसूत्र आदि में भोग को बाह्य पदार्थों के माध्यम से प्राप्त होने वाली सुखानुभूति या सन्तुष्टि के रूप में दर्शाया गया है। (6) सुख-दुःख की अनुभूति के रूप में - बृहद्रव्यसंग्रह के अनुसार, पाँचो इन्द्रियों के इष्ट एवं अनिष्ट विषयों से उत्पन्न सुख तथा दुःख रूप अनुभूति भोग है।' (7) आत्मिक-आनन्द की अनुभूति के रूप में – बृहद्रव्यसंग्रह के अनुसार, निज शुद्धात्मा के दर्शन , ज्ञान एवं आचरण से उत्पन्न अविनाशी आनन्द रूप अमृत का रसपान करना भोग है।
हमें अनेकान्त दृष्टि से इन अर्थों को मिलाकर ‘भोग' शब्द के आशय को समझना होगा। उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि व्यक्ति के सामने भोग के लिए दो मुख्य अनुभूति केन्द्र हैं – ऐन्द्रिक एवं आत्मिक। सामान्यतया व्यक्ति ऐन्द्रिक विषयों के भोग को ही भोग के रूप में स्वीकारता है। पूर्वकृत कर्मों के फलस्वरूप उसे ऐन्द्रिक विषयों की प्राप्ति होती है। जब अभीष्ट विषयों की संप्राप्ति होती है, तब उनमें तन्मय होकर वह सुख (हर्ष) की अनुभूति करता है और इससे विपरीत स्थिति में दुःख (विषाद) की। किन्तु जब साधक ऐन्द्रिक-विषयों को छोड़कर निज शुद्धात्मा का आश्रय लेता है, तब विकारों से रहित स्वयं के निश्चल, निर्मल, अखण्ड एवं अविनाशी आनन्द की अनुभूति करता है। जैनाचार्यों की दृष्टि में, आत्मिक-भोग ही वास्तव में उपादेय है यानि ग्रहण करने योग्य है। उन्होंने इसीलिए ऐन्द्रिक भोगों को मर्यादित करने और आत्मिक आनन्द की अभिवृद्धि करने का निर्देश दिया है। भोगोपभोग-प्रबन्धन के लिए यह विचार अपनी-अपनी भूमिकानुसार प्रत्येक जीवन-प्रबन्धक के लिए पालन करने योग्य है। आगे, इस विषय पर गहराई से चिन्तन किया जाएगा।
भोगोपभोग के अर्थ सम्बन्धी चर्चा के साथ-साथ यह भी आवश्यक होगा कि हम भोग एवं उपभोग के अन्तर को समझें। जैनदर्शन में भोगने योग्य वस्तुओं के दो विभाग किए गए हैं - भोग एवं उपभोग। वे वस्तुएँ जिनकी उपयोगिता एक बार में ही समाप्त हो जाती हैं, भोग की वस्तुएँ कहलाती हैं, जैसे - भोजन, पान, औषध, धूप आदि तथा वे वस्तुएँ जो बार-बार उपयोग में ली जा सकती हैं, क्योंकि उनकी उपयोगिता का ह्रास या तो नहींवत् होता है या अतिमन्द होता है, उपभोग की वस्तुएँ कहलाती हैं, जैसे – वस्त्र, आवास, आभूषण, स्त्री आदि।
जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व
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