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में अमेरिका में आई आर्थिक मन्दी इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है।30 5) भोगोपभोग के अतिरेक से ही व्यक्ति का जीवन-अस्तित्व खतरे में पड़ जाता है। 6) भोगोपभोग के कारण ही व्यक्ति को सामाजिक बदनामी और अपमान झेलना पड़ता है। 7) भोगोपभोग के अतिरेक में व्यक्ति आलसी हो जाता है और उसकी उत्पादन, विनिमय, वितरण
आदि आर्थिक-क्रियाएँ प्रभावित होती हैं। 8) भोगोपभोग का अतिरेक ही व्यक्ति को अकर्मण्य बनाकर बेरोजगार कर देता है। 9) भोगोपभोग में लिप्त व्यक्ति नैतिक एवं आध्यात्मिक आदर्शों (लक्ष्यों) से गिर जाता है। 10) भोगोपभोग के कारण समाज में वर्ग-संघर्ष (Class-Struggle) में वृद्धि होती है। 11) भोगोपभोग की वृत्ति से व्यक्ति स्वार्थी होकर अनीतिपूर्वक अर्थोपार्जन करने लगता है।
इस प्रकार, भोगोपभोग के विपक्ष में कही गई ये बातें भी निराधार नहीं हैं। अतः प्रसिद्ध साहित्यकार हरिकृष्ण प्रेमी का यह कथन अपना विशिष्ट महत्त्व रखता है कि “भोग की जीवन में आवश्यकता तो है, किन्तु भोग ही जीवन का आदि और अन्त नहीं है।"32 जैनदर्शन की अनेकान्त दृष्टि दोनों दृष्टियों (पक्ष एवं विपक्ष) को समन्वित कर भोगोपभोग की आवश्यकता का एक सापेक्ष दृष्टिकोण प्रदान करती है। इसके अनुसार, भोगोपभोग आवश्यक भी है और अनावश्यक भी। जीवन-प्रबन्धन के सन्दर्भ में यदि व्यक्ति अपनी भूमिकानुसार उचित मात्रा में भोगोपभोग करता है, तो यह आवश्यक है, किन्तु यदि वह इस सीमा का उल्लंघन करता है, तो यह अनावश्यक हो जाता है। जैनाचार्यों ने सप्त दुर्व्यसनों के त्याग, पैंतीस मार्गानुसारी कर्त्तव्यों के पालन, व्रतों (विशेषतः भोगोपभोग-परिमाण व्रत) के निर्वहन आदि का निर्देश भी भोगोपभोग को मर्यादित करने हेतु ही दिया है, जिनका विशेष चिन्तन आगे किया जाएगा। भोगोपभोग की जीवन में आवश्यकता और स्थान
जैनदृष्टि से भोगोपभोग की आवश्यकता एवं जीवन में उनके स्थान को हम पुरूषार्थ-चतुष्टय की अवधारणा के आधार पर भी समझ सकते हैं। इसमें धर्म, अर्थ और काम तीनों पुरूषार्थों को नकारकर जीवन का अन्तिम लक्ष्य मोक्ष कहा गया है, क्योंकि मोक्ष ही उत्तम एवं परमसुखदायक है। फिर भी, किसी हद तक धर्म को भी उसके मोक्षानुकूल होने से स्वीकार किया गया है, किन्तु अर्थ और काम को क्रमशः निरर्थक एवं दुःखकर मानकर उनका त्याग करने का उपदेश भी दिया गया है।
जैनदर्शन में साधनापथ पर अग्रसर साधक के लिए एक भिन्न दृष्टि से यह भी प्रतिपादित किया गया है कि यदि धर्म, अर्थ और काम परस्पर अबाधित होकर रहते हैं, तो ये स्वीकृत हैं। आशय यह है कि यदि अर्थोपार्जन न्यायपूर्वक हो, काम-भोग मर्यादित हो तथा धर्म-कार्य उचित अनुष्ठान के रूप में हो और ये तीनों मिलकर मोक्षाभिमुख हों, तो ये आचरणीय हैं।
इस प्रकार, साध्य की दृष्टि से काम (भोग) अनाचरणीय हैं एवं साधना की दृष्टि से मर्यादित
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अध्याय 11 : भोगोपभोग-प्रबन्धन
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