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11.3 उपभोक्ता संस्कृति का स्वरूप
भोगोपभोग के सम्यक् प्रबन्धन हेतु भोगोपभोग की आवश्यकता कितनी और किस रूप में है, यह विवेक होना अत्यावश्यक है। इसके अभाव में भोगोपभोग अमर्यादित होकर उपभोक्ता संस्कृति को जन्म देता है। आज विश्व में इसी उपभोक्ता संस्कृति का बोलबाला है।
___ इस सड़क पर इस कदर कीचड़ बिछा है।
हर किसी का पाँव घुटनों तक सना है।। 31 उपभोक्ता-संस्कृति का विकास यद्यपि मानवीय-कल्याण के उद्देश्य से ही हुआ था, फिर भी यह व्यवस्था ही आज मानव के लिए समस्याओं का कारण बन गई है। इसमें मूलतः उपभोक्ता को ही सम्पूर्ण अर्थव्यवस्था का प्रेरणा स्रोत माना जाता है और उपभोक्ता को लक्ष्य में रखकर ही उत्पादन, विनिमय, वितरण आदि आर्थिक क्रियाएँ संचालित होती हैं। उपभोक्ता की सुप्त वासनाओं को उकसाने के लिए विविध विज्ञापन एवं प्रलोभन दिए जाते हैं, उसे विविध उपभोक्ता-सेवाओं (Customer Services) के द्वारा आकर्षित किया जाता है, मूलतः सेवाओं के नाम पर लाभ प्राप्ति एवं स्वार्थपूर्ति का उद्देश्य प्रमुख होता है। उपभोक्ता बाह्य आकर्षण में फँसकर विवेक खो देता है और उसे अपने हित-अहित एवं लाभ-अलाभ का भान नहीं रहता। उसकी इच्छाएँ अनियंत्रित एवं असीमित हो जाती हैं, वह स्वच्छन्द हो जाता है। उसमें अधिक से अधिक भोगोपभोग की लालसा पनपती जाती है। वह दिनोंदिन इन्द्रिय-विषयों का दास बनता चला जाता है, फिर भी विडम्बना यह है कि उसे बाजार के 'राजा' (Consumer's Sovereignty) की संज्ञा देकर भ्रमित किया जाता है। प्रो.राबर्टसन का कहना है – 'पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में उपभोक्ता ही सम्राट् है।' कीखोफर का कहना है – 'उपभोक्ता के द्वारा किया गया चुनाव, चाहे वह समझदारीपूर्ण हो या मूर्खतापूर्ण, समस्त औद्योगिक प्रणाली को नियंत्रित करता है।' सच तो यह है कि भले ही उपभोक्ता की सर्वोच्च सत्ता बतलाई जाती है, फिर भी उसकी स्थिति एक कठपुतली से अधिक कुछ भी नहीं होती। इस प्रकार उपभोक्तावादी संस्कृति एक ऐसा वातावरण निर्मित करती है कि उपभोक्ता इसके मोहपाश में फंसकर उपभोगों के अतिरेक में डूब जाता है।
उपभोक्ता को भ्रमित करने वाली वर्तमान उपभोक्ता संस्कृति के मूल सूत्र हैं - ★ खूब उत्पादन हो और खूब उपभोग हो। ★ अनियंत्रित एवं असीम इच्छाएँ ही विकास का आधार हैं। ★ बाह्य समृद्धि ही जीवन स्तर की उन्नति का मापदण्ड है। ★ उपभोग ही अधिकतम सन्तुष्टि का एकमात्र साधन है। ★ उचित हो या अनुचित, उपभोग तो होना ही चाहिए।
उपभोक्ता-संस्कृति और भोगोपभोग-प्रबन्धन में बहुत अन्तर है। उपभोक्ता-संस्कृति वस्तुतः 621
अध्याय 11: भोगोपभोग-प्रबन्धन
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