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अध्याय 11
भोगोपभोग–प्रबन्धन
(Consumption Management)
11. 1 भोगोपभोग की अवधारणा एवं उपभोक्ता संस्कृति
11.1.1 भूमिका
सामान्यतया यह देखने में आता है कि जीवन में भोगोपभोग की आवश्यकता बनी ही रहती है। जीवन के संचालन लिए व्यक्ति आहार, वस्त्र, भवन आदि वस्तुओं (अर्थ) को उपार्जित, सुरक्षित एवं संगृहीत करके ही सन्तुष्ट नहीं होता, अपितु इनका भोगोपभोग भी करना चाहता है। जैनदर्शन की यह मान्यता है कि भोगोपभोग सभी के लिए आवश्यक है, किन्तु उसमें कहीं न कहीं एक मर्यादा का होना भी अत्यावश्यक है, अन्यथा अनियंत्रित भोगोपभोग से जीवन में अनेक विसंगतियाँ पैदा हो जाती हैं । कहा भी गया है कि जिस प्रकार जहरीले फल दिखने में कितने ही सुन्दर क्यों न हों, किन्तु उनका अन्तिम परिणाम सुखद नहीं होता, उसी प्रकार काम - भोग भोगते समय भले ही मीठे लगते हों, परन्तु उनका परिणाम अच्छा नहीं होता।' अतः यह एक विचारणीय प्रश्न है कि भोगोपभोग की मर्यादा कब, कितनी और किस रूप में होनी चाहिए। वस्तुतः, यह विचार ही हमें भोगोपभोग के सम्यक् प्रबन्धन की दिशा में ले जाता है।
यहाँ हम सबसे पहले भोग एवं उपभोग को समझने का प्रयत्न करेंगे।
11.1.2 भोगोपभोग का अर्थ
जैनदर्शन में ‘भोग' शब्द अलग-अलग प्रसंगों में भिन्न-भिन्न अर्थों में प्रयुक्त किया जाता है। कहीं भोग शब्द का अर्थ अतिव्यापक है, तो कहीं अतिसंकुचित भी, जिसे हम निम्न प्रकार से समझ सकते हैं
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(1) इन्द्रिय-विषयों के रूप में • उत्तराध्ययनसूत्रवृत्ति के अनुसार, इन्द्रिय और मन को अनुकूल लगने वाले शब्द, रूप, रस, गन्ध एवं स्पर्श – ये पाँच विषय भोग हैं। 2
आचारांगसूत्रवृत्ति के अनुसार, शब्दादि पाँचों ऐन्द्रिक विषयों
(2) कामना या इच्छा के रूप में
की अभिलाषा करना भोग है । 3
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अध्याय 11 : भोगोपभोग-प्रबन्धन
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