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द्रव्यलिंगी मुनिदशा की प्राप्ति भी हो सकती है। इसमें कदाचित् शुभभावमय जीने से देवत्व की रिद्धी-सिद्धि भी सम्भव हो जाए, किन्तु सम्यग्दर्शन न होने से अर्थ-प्रबन्धन के उत्तरवर्ती सोपानों पर आरुढ़ होना असम्भव है। इन सोपानों पर आरूढ़ होने के लिए सिर्फ बाह्य-त्याग या शुभभाव ही पर्याप्त नहीं है, वरन् सम्यग्दर्शन का होना भी अनिवार्य है। वस्तु के यथार्थ स्वरूप के आधार पर नवतत्त्वों का चिन्तन-मनन करके मिथ्या मान्यताओं को मिटाना ही सम्यक् श्रद्धान का वास्तविक रूप है ।
इस भूमिका में स्थित प्रबन्धक को निम्न कर्त्तव्यों का पालन करना चाहिए - 1) जैनदर्शन में प्रतिपादित नवतत्त्वों एवं षड्द्रव्यों के स्वरूप के सम्यक् चिन्तन, मनन एवं निर्णय
का अभ्यास करना। 2) बाह्य-पदार्थ नहीं, बल्कि आत्मा ही सुख-शान्ति एवं आनन्द का सच्चा स्रोत है - ऐसी सम्यक्
मान्यता बनाना। 3) जैनाचार में प्ररुपित धर्म-नीति से युक्त अर्थोपार्जन एवं भोगोपभोग करना। जीवन के हर छोटे
बड़े व्यवहार में नैतिकता रखना, क्योंकि श्रावक का प्रथम कर्त्तव्य न्याय-नीतिपूर्वक धनोपार्जन
करना है - न्यायसम्पन्नविभवः। 4) अंतरंग में अर्थ की आसक्ति का विसर्जन करने का प्रयत्न करना एवं बाह्य में दुर्गतियों के
कारण रूप 'बहु-आरम्भ-परिग्रहः' (अत्यधिक हिंसा एवं परिग्रह से युक्त जीवन) का त्याग
करना। 5) अशुभ भावों को दूर करके शुभ भावों अर्थात् स्वाध्याय, सेवा, दया, दान, पूजा, भक्ति, विनय,
विवेक एवं आत्मचिन्तन आदि की वृद्धि करना। 6) सन्तोष, अहिंसा, धैर्य, सहिष्णुता की अभिवृद्धि कर जीवन को सहज सुखी बनाने का यत्न
करना। 7) अंतरंग परिग्रह एवं बाह्य परिग्रह के सीमाकरण हेत प्रयत्न करना। 8) यथासम्भव मन्दतम इच्छा वाली जीवनशैली का विकास करना एवं अल्पतम आवश्यकताओं में
जीने का प्रयत्न करना। 2) द्वितीय भूमिका : मन्दाकांक्षी
यह अर्थ-प्रबन्धक का द्वितीय सोपान है, जिसमें उसकी अर्थ सम्बन्धी आकांक्षाएँ मन्द (ससीम) हो जाती हैं। यद्यपि वह कभी अशान्त, दुःखी एवं निराश रहता है और कभी शान्त, प्रसन्न एवं सन्तोषी भी, फिर भी दोनों ही दशाओं में उसे मन्दाकांक्षी ही मानना चाहिए, क्योंकि उसकी इच्छाओं का मूल स्रोत असीम से बदल कर 'ससीम' हो जाता है। उसकी यह मान्यता बन जाती है कि आत्मा स्वयं से ही सुखी या दुःखी होती है, न कि संसार के किसी बाह्य पदार्थ से। वह अब यह नहीं मानता है कि जितना अधिक अर्थ होगा, उतना ही अधिक जीवन सुखी एवं आनन्दित होगा। वह तो यह मानता है कि आत्मा में उत्पन्न तृष्णा से ही आत्मा दुःखी होती है एवं तृष्णाजय से सुखी, इसीलिए वह अब इस
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जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व
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