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(3) दुष्परिणामों की तीसरी अवस्था
मानसिक विकारों के दुष्परिणामों की तीसरी अवस्था है – भयावह मनोरोगों का होना। यह वह स्थिति है, जब व्यक्ति सामाजिक एवं वैयक्तिक रूप से इतना अधिक असन्तुलित हो जाता है कि उसे अपनी मानसिक समस्या के निवारण के लिए अन्य चिकित्सकीय उपचार की आवश्यकता पड़ती है। डी. एस.एम. (IV) एवं आई.सी.डी. (X) - ये दोनों वर्त्तमान की सर्वाधिक प्रसिद्ध पद्धतियाँ हैं, जिनमें बहुप्रचलित मनोरोगों का वर्गीकरण किया गया है, इनमें निर्दिष्ट प्रमुख मनोरोग इस प्रकार हैं128 -
* great façnfa (Anxiety Disorders) * मनोविच्छेदी विकृति (Dissociative Disorders) ★ कायप्रारूप विकृति (Somatoform Disorders) ★ मनोदशा विकृति (Mood Disorders) ★ मनोविदालिता (Schizophrenia) ★ मनोदैहिक समस्याएँ (Psychosomatic Problems) * africa façofa (Personality Disorders)
जैनाचार्यों ने भी मानसिक विकारों अर्थात् कषाय भावों से होने वाले दुष्परिणामों को दर्शाया है, जिससे जीवन-प्रबन्धक कषाय भावों से बचने की चेतना का विकास कर सके। व्यवहारभाष्यकार के अनुसार, मानसिक विकारों से ग्रस्त चित्त अस्वस्थ (असामान्य) होता है, जिसकी तीन अवस्थाएँ होती
1) क्षिप्तमन129 – यह चित्तरुग्णता से सम्बन्धित अवस्था है, जिसके मूलतया तीन कारण होते हैं - अनुराग, भय एवं अपमान। • अनुराग - किसी प्रिय का अनिष्ट या मरण जानकर विक्षिप्त होना। • भय – हिंसक पशु, शस्त्र, मेघ-गर्जन, बिजली कड़कना, दावानल , बम-विस्फोट आदि
से भयाक्रान्त होकर विक्षिप्त होना। • अपमान - सम्पत्ति छिन जाने, वाद-विवाद में पराजित हो जाने आदि अपमानों से
विक्षिप्त होना। 2) दीप्तमन'30 – अकस्मात् अत्यधिक सम्मान या लाभ प्राप्त होने पर या हर्ष का अतिरेक होने
पर यह अवस्था उत्पन्न होती है। इसमें व्यक्ति खुशी के मारे असम्बद्ध आह्लाद करने लगता है। 3) उन्मत्त मन131 -- यह अवस्था दिग्मूढ़ता से सम्बन्धित है, जिसमें व्यक्ति अपने लिए स्वयं ही
दुःख उत्पन्न करता है। जैनाचार्यों ने विविध कथानकों के माध्यम से भी इन क्षिप्तादि अवस्थाओं का मार्मिक चित्रण जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व
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