________________
(6) राजनीतिक भ्रष्टता - आज राजनीतिक दल सिर्फ अपने वोट बैंक तैयार करने में लगे हैं, इन्हें जनकल्याण से कोई सरोकार नहीं है। हर राजनेता कुर्सी चाहता है, कर्त्तव्य नहीं। उसकी चाहत केवल अपनी तिजोरी भरने की होती है, उसके आश्वासन झूठ और फरेब पर आधारित होते हैं। प्रायः यही दशा प्रशासन-व्यवस्था, न्याय व्यवस्था, पुलिस-व्यवस्था, कस्टम-व्यवस्था एवं अन्य सभी सरकारी तन्त्रों में दिखाई देती है, जहाँ समाजहित की अवमानना कर व्यक्ति सिर्फ स्वहित के लिए कार्य करता है। यहाँ भ्रष्टाचार की जड़ें गहराती जा रही हैं और इससे कामचोरी, रिश्वतखोरी, दगाबाजी आदि प्रवृत्तियाँ सहज ही घर कर रही हैं। जैन साहित्य में ऐसे अनेक प्रसंग मिलते हैं, जिनमें प्रतिवासुदेव (त्रिखण्डाधिपति) ने जब अपनी राजनीतिक शक्तियों का दुरुपयोग करना प्रारम्भ किया तो वासुदेव एवं बलदेव ने समाजहित के लिए उसे परास्त कर सुसाम्राज्य की स्थापना की। इस सम्बन्ध में राम-लक्ष्मण तथा कृष्ण-बलराम के उदाहरण जैनकथासाहित्य में भी उपलब्ध हैं। (7) जातिवाद - भारतीय संस्कृति में जाति व्यवस्था की प्रणाली अत्यन्त प्राचीन है। इसका मूल लक्ष्य समाज में कार्यों का सम्यक विभाजन करना है, किन्तु आज इसे ही श्रेष्ठता अथवा निम्नता का मापदण्ड मान लिया गया है और परिणामस्वरूप समाज में ऊँच-नीच का भेदभाव बढ़ गया है। यह जातिवाद वस्तुतः समाज की एकता को खण्डित करके विभिन्न समूहों में सामाजिक दूरियों को बढ़ाने वाली परम्परा बन गई है। इससे प्रत्येक जाति केवल अपने ही जातिवालों के स्वार्थ की पूर्ति में तत्पर रहती है और अन्य जाति वालों से वैर, वैमनस्य एवं विद्वेष रखती है। वस्तुतः यह जातिवाद की समस्या उत्पन्न ही नहीं होती, यदि मनुष्य ने भगवान् महावीर की शिक्षाओं को समुचित आदर दिया होता। उनका कहना है - ‘जन्म से तो सभी मनुष्य समान ही हैं, उनकी एक ही जाति है। कर्म के आधार पर ही उनके ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शुद्र – ये चार विभाग हैं। 40 (8) मनोरंजन (Recreation) – मनोरंजन के विभिन्न साधन भी सामाजिक विघटन उत्पन्न कर रहे हैं। आजकल इन साधनों का भी व्यापारीकरण होता जा रहा है। व्यापारी वर्ग सिर्फ आर्थिक लाभ उठाने के लिए जनकल्याण पर आघात कर रहे हैं। सिनेमा और दूरदर्शन के माध्यम से दिखलाए जाने वाले कामोद्दीपक दृश्य, हत्या एवं यौन अपराधों को बढ़ावा दे रहे हैं। व्यक्ति इनके माध्यम से प्राचीन एवं पवित्र मूल्यों को खोता जा रहा है। (9) धार्मिक उन्माद - धर्म वस्तुतः सामाजिक संगठन एवं एकता का माध्यम है, फिर भी मनुष्य की संकीर्ण विचारधारा ने धर्म के नाम पर अनेक धार्मिक विकृतियों को जन्म दे दिया है। आज धर्म के नाम पर हिंसा और युद्ध तक हो रहे हैं। विभिन्न अन्धविश्वास एवं अन्धरूढ़ियाँ भी व्यक्ति के व्यवहार को अविवेकपूर्ण बना रही है। धार्मिक संस्थाओं में धर्म एवं संप्रदाय, गच्छ एवं पन्थ , गुरु एवं भगवान् को लेकर परस्पर विद्वेष एवं विसंवाद भी इसी का परिणाम है। वस्तुतः, व्यक्ति ने भ्रमवश कट्टरवाद को अपनाकर अनेक धार्मिक विकृतियाँ उत्पन्न कर दी हैं। कलिकाल की इस स्थिति का स्पष्ट चित्रण करते
505
अध्याय 9: समाज-प्रबन्धन
15
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org