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मूल्यों से युक्त रहे। 18) 'मेरा सो सच्चा' ऐसा दुराग्रह न कर ‘सच्चा सो मेरा' ऐसा अनाग्रहपूर्ण जीवन जीना। 19) शत्रुओं के भी गुण ही देखना अर्थात् गुणानुरागी बनना। 20) देश, काल और शक्ति के आधार पर विचार एवं व्यवहार में उपयोगी परिवर्तन लाते रहना। 21) आचारवान् व्रतियों एवं ज्ञानवान् विद्वानों की सेवा में सदैव तत्पर रहना, क्योंकि सेवा से __ सत्समागम, सत्समागम से सम्यग्ज्ञान और सम्यग्ज्ञान से सदाचारपूर्ण जीवन की प्राप्ति होती है। 22) अधिकारों की आसक्ति छोड़ना और उत्तरदायित्वों के पालन में तत्पर रहना अर्थात् Sense of ___ duty तो रखना, लेकिन Sense of attachment नहीं। 23) समाज और परिवार में पनपती छोटी-छोटी बुराइयों को भी नजरअन्दाज नहीं करना और
प्रत्येक पहलू का सूक्ष्म एवं यथोचित विश्लेषण कर शान्ति के साथ उसके निवारण का प्रयत्न
करना। 24) माता-पिता गुरुजन आदि का उपकार सदैव याद रखना। योगशास्त्र में कहा भी गया है कि
कृतज्ञता प्रकट करना, धन्यवाद देना या आभारी होना, स्वस्थ और सहज समाज की पहचान
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25) सुसंस्कारित होकर समाज में सबका प्रिय (लोकप्रिय) बनना। 26) अनुचित कार्य करते हुए लज्जा महसूस करना। कहा भी गया है – 'लाज सुधारे काज'। 27) दूसरों को कष्ट देने के पूर्व यह सोचना कि 'जैसी पीड़ा मुझे होती है, वैसी ही इसे भी होती ____ होगी, अतः मैं दूसरों को कष्ट क्यों दूं।' 28) विपत्तियों में भी सदैव शान्त, शीतल और सौम्य रहना। 29) दुःखियों पर अनुकम्पा करना। 30) दूसरों के लिए काम आ सकूँ, सदैव ऐसी भावना रखना। 31) काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मात्सर्य – इन छः शत्रुओं से सदैव दूर रहना। 32) इन्द्रियों के विषयों की लालसा को सीमित करना। 33) दूसरों की खुशियों की खातिर जरूरत पड़ने पर अपनी खुशियों का त्याग करने के लिए सदैव
तैयार रहना। 34) किसी व्यक्ति की स्वतन्त्रता में बाधक न बनना और न ही उसे रस्सी आदि से बाँधना। 35) किसी व्यक्ति को डण्डे आदि से नहीं मारना या पीटना। 36) किसी की लाचारी का गलत फायदा नहीं उठाना। 37) किसी को उचित पारिश्रमिक से कम नहीं देना और न ही अकारण किसी की आजीविका
छिनना। 38) किसी व्यक्ति पर उसकी शक्ति से अधिक कार्य-भार नहीं लादना। 39) नौकर-चाकर आदि को समय पर भोजन-पानी एवं वेतन देना।
जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व
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