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सर्वेप्यमी बन्धुतयानुभूतः, सहस्रशोऽस्मिन्भवता भवाब्धौ। जीवास्ततो बन्धव एव सर्वे, न कोऽपि ते शत्रुरिति प्रतीहि।।
अर्थात् संसार के जीवों को हजारों बार इस जीव ने स्वजन के रूप में स्वीकारा है, अतः ये सभी जीव शत्रु नहीं अर्थात् बन्धु रूप ही हैं। 61) बुरा करने वाले के प्रति भी बुरा नहीं सोचना, अपितु अपने ही पूर्वकृत कर्मों के फल के रूप में
परिस्थिति को स्वीकार करना। 62) निर्लिप्त भाव से जगत् में जीना और यह स्मरण रखना कि -
एगोऽहं नत्थि मे कोई, नाहमन्नस्स कस्सइ। एवं अदीण मणसो अप्पाणमणुसासए।। एगो मे सासओ अप्पा, नाण - दंसणसंजुओ। सेसा मे बाहिरा भावा, सव्वे संजोग-लक्खणा।। संजोग-मूला जीवेण, पत्ता दुक्ख-परंपरा।
तम्हा संजोग-सम्बन्धं, सव्वं तिविहेण वोसिरिअं।। अर्थात् “मैं एक हूँ, मेरा कोई नहीं। इस प्रकार, अदीनमन होकर (उल्लसित भावों के साथ) आत्मा को अनुशासित करना चाहिए। मैं एक हूँ, शाश्वत् हूँ और ज्ञान-दर्शन से युक्त आत्मा हूँ। शेष सभी शरीरादि बाह्य हैं और ये सभी संयोग रूप हैं। इन संयोगों को अपना मानने से जीव हमेशा दुःख ही पाता है। अतः मैं इन सभी संयोग सम्बन्धों को मन, वचन एवं
काया से छोड़ता हूँ।” 63) विषम से विषम परिस्थिति में भी हिम्मत नहीं हारना और न ही असामाजिक कार्य करना। याद रखना -
क्रोधादिक वसे रण समे, सह्यां दुक्ख अनेक।
ते जो समता मां सहे, तो तुज खरो विवेक।। अर्थात् क्रोधादिक के वशीभूत होकर तो अतीत में अनेक बार युद्ध भूमि पर दुःखों को सहन किया। यदि इन्हीं दुःखों को समता भाव से सहन कर लिया जाए, तो यह हमारा सही
विवेक होगा। 64) स्वयं के द्वारा भूल होने पर क्षमा माँग लेना एवं दूसरों के द्वारा भूल होने पर उन्हें क्षमा कर देना। कहा भी गया है
खामेमि सव्वजीवे, सव्वे जीवा खमंतु मे। मित्ती मे सव्वभूएसु, वेरं मज्झ न केणइ ।।
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जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व
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