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(6) अर्थ की हेयता का विश्लेषण
एक सामान्य आदमी की यह मान्यता है कि अर्थ से सुख ही सुख मिलता है, किन्तु जैनाचार्यों की आध्यात्मिक दृष्टि के अनुसार, यह केवल एक भ्रम है। वास्तविकता तो यह है कि सुख आत्मा में है, अर्थ में नहीं। प्रत्युत अर्थ के प्रति आसक्ति ही दुःख का कारण बनती है। इसी तथ्य के आधार पर अर्थ की हेयता का विश्लेषण आगे किया जा रहा है - (क) अर्थ में सुख का भ्रम
यह सार्वभौमिक सत्य है कि संसार का प्रत्येक प्राणी सुख चाहता है और दुःख से दूर भागता है,139 किन्तु सुख चाहना और सुख पाना दोनों अलग-अलग हैं। अधिकांश प्राणी सुख तो प्राप्त नहीं कर पा रहे हैं, उल्टा दुःखी होकर जीवन व्यतीत कर रहें हैं, आखिर क्यों?
जैनाचार्य कहते हैं कि उनके दुःख का मूल कारण उनकी अर्थ में सुख की वांछा है, जो कभी पूरी नहीं हो सकती।40 यह भ्रमित स्थिति उस मृग के समान है, जो नाभि में स्थित कस्तूरी को सारे वन में खोजते-खोजते एक दिन मर जाता है, जबकि वह वहाँ खोजी जाती है, जहाँ मौजूद ही नहीं होती।
जैनाचार्यों के अनुसार, सुख मुख्यतः आत्माश्रित है, उसे अर्थाश्रित होकर प्राप्त नहीं किया जा सकता। अर्थाश्रित दृष्टिकोण के कारण ही आज धन-सम्पत्ति को सुखी जीवन का मापदण्ड माना जाता है। इस मान्यता का मूलसूत्र है - ‘समृद्धि बढ़ाओ और सुख पाओ'। इससे ही सामान्य व्यक्ति समृद्ध
और सम्पन्न लोगों को सुखी मानने की झूठी कल्पना कर लेता है। उनकी विलासिताओं को देखकर कई बार हीनभावना से ग्रस्त भी हो जाता है।
आज बड़े-बड़े नेता, अभिनेता, खिलाड़ी, उद्योगपति आदि समाज में सर्वाधिक लोकप्रिय हैं। कारण है बाह्य चकाचौंध का भ्रम, इसीलिए व्यक्ति इनकी आन्तरिक तस्वीर को देख ही नहीं पाता। इनके मस्तिष्क की उलझनों, हृदय के आँसुओं, पारिवारिक क्लेशों और व्यावसायिक झंझटों को समझ ही नहीं पाता। जैनाचार्यों को इसीलिए कहना पडा - धन एक ऐसी चीज है, जो सोए हुए निर्धन व्यक्ति को स्वप्न में दिखने पर तो चक्कर में डालती ही है, परन्तु जागे हुए को भी भ्रमित किए बगैर नहीं रहती।141
इस भ्रम को दूर करना अत्यावश्यक है। इसके बिना जीवन में सम्यक् अर्थ-प्रबन्धन सम्भव नहीं है। यदि व्यक्ति अतिसंकुचित दृष्टि से ग्रस्त होकर अर्थ के प्रति ही अपना सर्वस्व समर्पित करता रहेगा, तो जीवन के अन्य उच्चतर लक्ष्यों की प्राप्ति कैसे कर सकेगा? व्यक्ति का अन्तिम साध्य अर्थ नहीं, बल्कि जीवन में सुख, सौहार्द एवं प्रसन्नता की प्राप्ति है।
जैनाचार्यों ने इसी सन्दर्भ में अर्थ अर्थात् धन-सम्पत्ति को भी दुःखवर्धक विषय जानकर यह
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अध्याय 10 : अर्थ-प्रबन्धन
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