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आजकल सामान्य स्तर के घर-दुकानों में भी प्रायः आवश्यकता से अधिक वस्त्र, बर्तन, क्रॉकरी, जूते-चप्पल, फर्नीचर आदि अनेकानेक सामग्रियाँ दिखाई देती हैं, जिनमें से कई तो पूरा उपयोग किए बिना ही नष्ट हो जाती हैं। यहाँ तक कि गृहीत वस्तु की देख-रेख, रख-रखाव, उपभोग एवं संग्रह करने में अनेक तकलीफें भी आती हैं। इसमें व्यर्थ ही श्रम, कष्ट एवं कार्य-भार भी बढ़ जाता है। अतः ग्रहण-प्रबन्धन करना जीवन का एक आवश्यक अंग है। ग्रहण-प्रबन्धन का यह सिद्धान्त है कि कभी भी किसी वस्तु को शौकिया नहीं खरीदना चाहिए। पहले यह विचारना चाहिए कि क्या वस्तु की सचमुच आवश्यकता है या केवल उसका आकर्षणभर है या अकारण ही प्राप्त करने की इच्छा है? सस्ते होने से अथवा लोक-प्रवाह से किसी वस्तु को खरीदना उचित नहीं है। अतः लोभ का त्याग कर सिर्फ आवश्यकतानुसार ही खरीदना चाहिए।
ग्रहण-प्रबन्धन के लिए साधन-शुद्धि के बारे में सम्यक् समझ का होना भी अपेक्षित है। वस्तु के उत्पादन, विनिमय, वितरण एवं उपभोग में अन्याय, अनीति एवं अकल्पनीय दोषों का सेवन होता हो तो उसका त्याग कर देना चाहिए। यदि वस्तु निरीह प्राणियों के वध से प्राप्त चमड़े, फर, रेशम आदि दोषपूर्ण (हिंसा से प्राप्त) पदार्थों से निर्मित हैं अथवा दूरदराज से आयातित (Imported) है अथवा उपभोग के समय मनोभावों को विकृत करती हो, तो वह भी ग्राह्य नहीं है। वस्तु यदि हमारी संस्कृति, सदाचारिता और सादगी के अनुरूप हो, तो ही ग्रहण करना चाहिए।
यह भी देखना आवश्यक है कि वस्तु की उपयोगिता कितने समय तक एवं कितनी बार होगी। यदि यदा-कदा ही प्रयोग होती हो, तो उसके वैकल्पिक उपाय खोजना चाहिए। उदाहरणार्थ, वैवाहिक आयोजन में नई गाड़ी, नया सूट, नया फर्नीचर आदि खरीदना हमेशा उचित नहीं है।
__ इसी प्रकार, वस्तु का ग्रहण करने के पूर्व उसकी तात्कालिक ही नहीं, वरन् दीर्घकालिक लाभ-हानि का सम्यक् विश्लेषण भी करना आवश्यक है। जैन-परम्परा में इसे 'एषणा-समिति' नामक आचार कहा जाता है, जो मुनि एवं श्रावक दोनों के लिए पालनीय है। मुनि के लिए तो स्पष्ट निर्देश दिया गया है कि वह आहार, विहार, निहार आदि सभी कार्यों के लिए आवश्यक भूमि, भवन, वस्तु आदि की निर्दोषता के बारे में पहले पूरी जानकारी ले, फिर उन्हें ग्रहण करे, अन्यथा उसे अकल्पनीय पिण्ड के सेवन का दोष लगता है।192 .
यह सदैव स्मरण रहे कि ग्रहण करने के पूर्व वस्तु के प्रति हमारा कोई दायित्व नहीं बनता, अतः उसका त्याग आसानी से किया जा सकता है, किन्तु ग्रहण करते ही उसकी पूरी जवाबदारी हमारी हो जाती है, अतः ‘ग्रहण' की प्रक्रिया में सावधानी रखना आवश्यक है।
इस प्रकार, किसी वस्तु को ग्रहण करने के पूर्व उस वस्तु की 1) उपयोगिता (Utility), 2) मात्रा (Quantity), 3) गुणवत्ता (Quality), 4) कीमत (Price), 5) प्रयोग की बारम्बारता (Frequency of use), 6) उपयोगिता–काल (Life Duration) 7) शुद्धता (Purity), 8) पापरहितता
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अध्याय 10 : अर्थ-प्रबन्धन
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