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★ वस्तु को छोड़ा या दूसरों को दिया नहीं जाता – ऐसी कृपणता। ★ वस्तु का उचित खरीददार नहीं मिलता – ऐसी विवशता। ★ वस्तु की कीमत बढ़ेगी, तभी बेचेंगे – ऐसा प्रलोभन । ★ 'अभी तो बिल्कुल जरुरत नहीं है, किन्तु कभी जरुरत पड़ गई तो' – ऐसी सोच। ★ 'अभी काम बहुत हैं, इसके बारे में बाद में सोचेंगे तब तक इसे रखो' – ऐसी प्रमाद-दशा। ★ 'बहुत कठिनाई से कमाई है, इसे यूँ ही कैसे दान कर दें या बेंच दे या दे दें' – ऐसी
आसक्ति।
इस प्रकार, दूषित विचारों को वमनकर, सकारात्मक विचारों को ग्रहणकर, केवल वास्तविक आवश्यकताओं के आधार पर ही संग्रह करना चाहिए।
यह भी ध्यान रखना होगा कि संगृहीत पदार्थों का भविष्य में उपयोग हो पाए या नहीं, किन्तु उनके लेन-देन, उठाने-रखने, साफ-सफाई आदि में अनगिनत जीवों की हिंसा तथा अन्य पापों का सेवन तो होता ही है, अतः वस्तुओं का उचित एवं आवश्यक संग्रह ही करना चाहिए। इसे जैनदर्शन में 'आदान-निक्षेप' नामक चौथी समिति के रूप में भी निर्देशित किया गया है। 203 कुल मिलाकर, संग्रह-प्रबन्धन के लिए हिंसा, झूठ, चोरी आदि दोषों को टालना एक आवश्यक कार्य है।
पदार्थों के संग्रहण में व्यक्ति के मनोभावों में अनेक विकार भी जन्म ले लेते हैं, जैसे – वैर, अहंकार, ममता इत्यादि। इससे व्यक्ति सतत बोझिल, भयभीत एवं तनावग्रस्त रहता है।204 अतः संग्रह की सीमा होना अत्यावश्यक है।
संग्रह-प्रबन्धन के लिए यह विचारना भी आवश्यक है कि संगृहीत वस्तु का भविष्य में नुकसान होने की सम्भावना कितनी है। जहाँ ऐसी सम्भावना अधिक प्रतीत हो, वहाँ संग्रह ही कम कर देना चाहिए। अक्सर अतिसंग्रह के कारण निजी और सरकारी दोनों क्षेत्रों में अत्यधिक नुकसान होता है। उदाहरणार्थ, कई बार लाखों टन अनुपयोगी अनाज को समुद्र या बॉयलर में डाल कर नष्ट करना, बाहर खुली जगह पड़े हुए सीमेंट, रेत, पुरानी मशीनें, लोहा, पुराने फर्नीचर आदि सामग्रियों का खराब होना, गोडाउन, वेयर हाउस, माल-गोदाम आदि भण्डारों में रखे वस्त्र, कोयला, रुई आदि में अग्निकाण्ड होना इत्यादि। इनमें न केवल आर्थिक , बल्कि समय, श्रम, संसाधन आदि का नुकसान भी होता है। अतएव वस्तुओं का संग्रह उचित मात्रा में ही करना चाहिए।
संग्रह-प्रबन्धन के अन्तर्गत यह विचारना भी आवश्यक है कि अतिसंग्रह ही सामाजिक वैर एवं विषमता का कारण भी है। आज दुनिया की अधिकांश सम्पत्ति पर कुछ हजार लोगों का कब्जा है। अनेक लोग आर्थिक-विपन्नता के दौर से गुजर रहे हैं। इससे ही विकसित एवं विकासशील देशों में परस्पर असन्तोष पनप रहा है। इतना ही नहीं, राष्ट्रीय, सामुदायिक तथा पारिवारिक स्तर पर भी परस्पर वैर-विरोध बढ़ रहा है। हर व्यक्ति भीतर में कलुषता एवं बाहर में कालाबाजारी को प्रोत्साहन
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जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व
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