________________
3) उपभोग-प्रबन्धन
अर्थ के ग्रहण और सुरक्षा के साथ-साथ उपभोग - प्रबन्धन का विकास भी एक आवश्यक अंग है। जहाँ उत्पादन उपयोगिता का सृजन करता है, वहीं उपभोग उस उपयोगिता को समाप्त कर देता है। 197 फिर भी सामान्यतया अर्थ- पुरूषार्थ का ध्येय उपभोग ही होता है ।
वस्तु के उपभोग का आकर्षण ही मानव को अर्थ की प्रक्रियाओं में उलझाता है । परन्तु जैनाचार्य मोहित होकर उपभोग करने के बजाय उदासीनतापूर्वक (अनासक्तिपूर्वक) नियन्त्रित उपभोग करने की प्रेरणा देते हैं। इस पर नियन्त्रण करने से ही अन्य अर्थ - प्रक्रियाएँ ग्रहण, सुरक्षा और संग्रह
198
आसानी से प्रबन्धित हो सकती हैं।
कुछ वर्ष पूर्व तक कार सिर्फ विलासिता की वस्तु थी, धीरे-धीरे वह सुविधा की वस्तु बनी और अब तो अनिवार्य वस्तु बन चुकी है । यह अनियंत्रित उपभोग का ही परिणाम है। जिस व्यक्ति का उपभोग - विवेक जाग्रत हो जाता है, वह उपभोग करने के पूर्व सजगतापूर्वक उपयोगिता को टटोलता है और उपभोग को आदत नहीं बनने देता है उल्टा, वह उपभोग का सीमाकरण करते हुए अर्थ की आवश्यकता का ही सीमाकरण कर देता है ।
जैन-संस्कृति में उपभोग के बजाय त्याग - वृत्ति को महत्त्व दिया गया है। जो व्यक्ति उपभोग पर नियंत्रण नहीं रख पाता, उसकी दशा पशु से ऊपर नहीं उठ पाती। जैन मुनि को जीवन - अस्तित्व बनाए रखने के लिए भोजन, पानी, आवास आदि आवश्यक सामग्रियों को छोड़कर शेष का परित्याग करना होता है। इससे सुनिश्चित होता है कि सुविधा, मनोरंजन और विलासिता सम्बन्धी उपभोग किए बिना भी जीवन जिया जा सकता है एवं मानवीय जीवन के उच्च लक्ष्यों को भी प्राप्त किया जा सकता
है।
-
महात्मा गाँधी का सामाजिक जीवन एक आदर्श है। उनके उच्च नैतिक जीवन का मूल सूत्र था 'सादा जीवन और उच्च विचार' । उन्होंने अल्प आवश्यकता और निःस्वार्थ-वृत्ति अपनाकर सामाजिक जीवन का सफलतापूर्वक निर्वाह किया ।
अर्थ- प्रबन्धक को चाहिए कि वह विवेकपूर्वक मर्यादित उपभोग ही करे, किसी भी उपभोग-प्रक्रिया के पूर्व उसकी उपयोगिता का उचित विश्लेषण अवश्य करे। वह विचार करे कि
62
★ यह उपभोग वास्तविक आवश्यकता है या नहीं?
★ चाय, सिगरेट, शराब, अफीम आदि की तरह यह उपभोग कहीं आदत, संस्कार या व्यसन तो नहीं बन जाएगा?
★ यह देश - काल की मर्यादा के अनुरूप है भी अथवा नहीं?
★ यह सामाजिक रूप से निषिद्ध तो नहीं है?
★ यह अहिंसा आदि सद्गुणों के पालन में बाधक तो नहीं है?
जीवन- प्रबन्धन के तत्त्व
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
590
www.jainelibrary.org