________________
हानियाँ होती हैं, जो चिन्ता का विषय है। महात्मा गाँधी का यह विचार आज भी प्रासंगिक है कि 'मनुष्य अर्थ की कमी के कारण उतना परेशान नहीं है, जितना अर्थ की अव्यवस्था (अपव्यय) के कारण
है। 194
कई लोग वस्तुओं की असुरक्षा से हो रहे नुकसानों को महत्त्व नहीं देते हैं। वे कहते हैं कि - इसमें क्या बिगड़ा है, पुनः क्रय कर लेंगे। परन्तु जैनाचार्यों की दृष्टि में वस्तु के आर्थिक-मूल्य का ही नहीं, अपितु जैविक-मूल्य का भी महत्त्व है। यही कारण है कि जैन–परम्परा में एक बूंद पानी (आधुनिक-विज्ञान के अनुसार, यह 36,450 त्रस जीवों से युक्त है) के अपव्यय को घी ढोलने से भी अधिक पापमय माना गया है। यह वस्तुतः कंजूसी नहीं, बल्कि मितव्ययता का ज्वलन्त उदाहरण है।
___ कुछ लोग अपनी सुरक्षा के लिए हिंसक कुत्ते पालते हैं, किसी अपेक्षा से यह भी उचित नहीं है। अपनी सुरक्षा और चैन की नींद के लिए किसी निरीह प्राणी को बाँधकर रखना तथा उसके लिए हड्डी, मांस आदि अभक्ष्य पदार्थों की व्यवस्था करना अनुचित है।
आत्म–सुरक्षा के लिए पिस्तौल, चाकू, तलवार आदि अनावश्यक रूप से हिंसक साधनों को रखना भी ठीक नहीं है। यद्यपि व्रतधारी सामान्य श्रावक के लिए आत्म-सुरक्षार्थ विरोधी-हिंसा करना वर्जित नहीं है, तथापि वह किसी भी सामान्य प्रसंग में अन्य प्राणियों की हिंसा के लिए स्वतंत्र भी नहीं है। आजकल छोटी-छोटी बातों को लेकर बड़े-बड़े विवाद हो जाते हैं। उदाहरणस्वरूप, किरायेदार द्वारा मकान खाली नहीं करना, खाली भूमि पर पड़ोसियों द्वारा कचरा फेंकना, हुण्डी का समय पर भुगतान नहीं होना, मजदूरों द्वारा हड़ताल करना, जायदाद के बँटवारे में पक्षपात होना इत्यादि वे कार्य हैं, जिनमें हिंसक उपकरणों का प्रयोग न तो स्वयं करना चाहिए, न ही दूसरों द्वारा करवाना चाहिए। अन्यथा क्षण भर की भूल व्यक्ति का पूरा भविष्य बिगाड़ सकती है। इन विवादों के समाधान के लिए प्रबन्धक को निम्न प्रयत्न करने चाहिए -
★ वह स्वयं ऐसी लापरवाही ही न बरते कि दूसरे को उसका गलत लाभ उठाने का अवसर मिले। ★ विवाद हो जाने की स्थिति में सामंजस्य को प्राथमिकता दे। ★ मजबूरी में भी गैरकानूनी हथकण्डे अपनाने के बजाय पुलिस, लोक अदालत, न्याय-पंचायत,
उपभोक्ता फोरम आदि का सहयोग ले।
कुल मिलाकर, सुरक्षा-प्रबन्धन के लिए यह जरुरी है कि प्रबन्धक अहिंसात्मक पद्धति का प्रयोग करे, जिससे अन्यों के साथ वैर–वैमनस्य की अभिवृद्धि न हो। सूत्रकृतांग में चेतावनी के रूप में कहा गया है - जो परिग्रह में आसक्त (व्यस्त) हैं, वे संसार में अपने प्रति वैर ही बढ़ाते हैं। 196 सुरक्षा प्रबन्धन के लिए यह ध्यान रखना आवश्यक है कि प्रबन्धक अर्थ–सुरक्षा के लिए जीवन-सुरक्षा को दाँव पर लगाने वाले व्यर्थ विवादों में न फँस जाए, अन्यथा ये विवाद ही हमारे इहलौकिक एवं पारलौकिक सुख-शान्ति को नष्ट कर देंगे।
589
अध्याय 10 : अर्थ-प्रबन्धन
61
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org