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उपर्युक्त अर्थ-चक्र का गहराई से विश्लेषण करने पर इसके तीन सम्भावित रूप हो सकते हैं,
जो इस प्रकार हैं
अर्थ-चक्र के प्रकार
निरन्तर वृद्धिशील
निरन्तर ह्रासशील
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सन्तुलनशील
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प्रमुख विशेषताएँ
1) व्यक्ति की आर्थिक स्थिति का सतत विकास । 2) व्यावसायिक दायित्व की निरन्तर वृद्धि ।
3) अन्य व्यावहारिक एवं आध्यात्मिक पहलुओं की उपेक्षा । 4 ) सम्यक् अर्थ - प्रबन्धन का अभाव ।
1) व्यक्ति की आर्थिक विपन्नता में वृद्धि ।
2) उपार्जन कम एवं उपभोग अधिक ।
3) कर्ज में निरन्तर वृद्धि ।
4) अन्य व्यावहारिक एवं आध्यात्मिक पहलुओं की उपेक्षा।
5) सम्यक् अर्थ-प्रबन्धन का अभाव।
1) व्यक्ति की आर्थिक स्थिति में सन्तुलन ।
2) आय के हिसाब से व्यय ।
3) कर्जशून्य स्थिति ।
4) सम्यक् अर्थ - प्रबन्धन का सद्भाव ।
5) धर्म, अर्थ, भोग एवं मोक्ष पुरूषार्थ में उचित सन्तुलन ।
सन्तुलनशील अर्थ-चक्र के औचित्य का चिन्तन प्राचीनकाल से ही होता आया है। इसमें देश, काल एवं परिस्थिति के आधार पर परिवर्तन भी होते रहे हैं, किन्तु महत्त्वपूर्ण तथ्य यह है कि हर युग में प्रबुद्ध जनों ने अर्थ के सम्यक् नियोजन के प्रयत्नों पर ही बल दिया है।
कौटिलीय अर्थशास्त्र में कहा गया है कि गृहस्थ सर्वप्रथम अपनी आय पर विचार करे कि वह कितना और कैसे कमाता है, क्योंकि अन्याय से कमाया हुआ एक पैसा भी समस्त धन को दूषित कर
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सही (V) या
गलत (x)
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योगशास्त्र में भी स्पष्ट कहा गया है कि एक सद्गृहस्थ न्यायनीतिपूर्वक धनोपार्जन करे तथा आय के अनुपात में ही व्यय करे ।'
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जैन-ग्रन्थों के अनुसार, प्राचीन समय में सन्तुलनशील अर्थ - चक्र की स्थापना के लिए निम्न प्रकार से नियोजन किया जाता था'
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अध्याय 10: अर्थ-प्रबन्धन
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