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(ख) आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए उचित प्रक्रियाएँ
उचित आवश्यकताओं एवं उनकी पूर्ति के साधनों का निर्धारण करने की सार्थकता तभी है, जब क्रियान्वयन की सम्यक् प्रक्रिया का पालन एवं प्रबन्धन भी हो। यह प्रक्रिया अनेक छोटी-बड़ी प्रक्रियाओं का समूह होती है, जिनका समुचित प्रबन्धन करने पर ही अर्थ सम्बन्धी प्रयत्नों में सफलता प्राप्त हो सकती है। ये प्रक्रियाएँ चार प्रकार की होती हैं -
★ ग्रहण प्रक्रिया - अर्थोपार्जन या अर्थ-प्राप्ति की प्रक्रिया ★ सुरक्षा प्रक्रिया - उपार्जित या प्राप्त अर्थ के संरक्षण एवं रख-रखाव की प्रक्रिया ★ उपभोग प्रक्रिया - उपार्जित अर्थ के उपयोग की प्रक्रिया ★संग्रह प्रक्रिया - अतिरिक्त अर्थ के संचय की प्रक्रिया
प्रतीत होता है कि ये चारों प्रक्रियाएँ मूलतः प्राचीन महर्षियों द्वारा उपदिष्ट चारों संज्ञाओं से सम्बद्ध हैं। इनका पारस्परिक सम्बन्ध इस प्रकार है - 1) आहार संज्ञा की पूर्ति का साधन है - ग्रहण प्रक्रिया 2) भय संज्ञा की पूर्ति का साधन है - सुरक्षा प्रक्रिया 3) मैथुन संज्ञा की पूर्ति का साधन है - उपभोग प्रक्रिया 4) परिग्रह संज्ञा की पूर्ति का साधन है - संग्रह प्रक्रिया
यद्यपि सामान्य व्यक्ति के जीवन में ये प्रक्रियाएँ निरन्तर साथ-साथ चलती रहती हैं, तथापि महत्त्व की अपेक्षा से इनका एक क्रम रहता है। व्यक्ति सर्वप्रथम ग्रहण-प्रक्रिया को सर्वोच्च प्राथमिकता देता है। अर्थ की प्राप्ति होने पर सुरक्षा-प्रक्रिया की प्राथमिकता हो जाती है। अर्थ की सुरक्षा सुनिश्चित होने पर उपभोग प्रक्रिया को प्रमुखता मिलती है और अन्त में उपभोग करके सन्तृप्त होने पर शेष अर्थ की संग्रह-प्रक्रिया प्रमुख हो जाती है।
इस आधार पर कहा जा सकता है कि ये प्रक्रियाएँ निरन्तर गतिशील अर्थ-चक्र (Economic Cycle) का निर्माण करती हैं। किसी नियत वस्तु की अपेक्षा से अर्थ का यह चक्र स्वतः स्पष्ट है। सामान्य व्यक्ति किसी वस्तुविशेष का ग्रहण, सुरक्षा, उपभोग और संग्रह प्रायः संग्रह/
सुरक्षा अनुक्रम से ही करता रहता है और संगृहीत अर्थ का पुनः निवेश करके | निवेश अर्थवृद्धि का प्रयत्न भी करता रहता है। फलस्वरूप, अभिवर्धित अर्थ को पुनः ग्रहण करता है। इस तरह से यह अर्थचक्र अनवरत प्रवाहित
उपभोग (Continuous Process) होता रहता है।
यह चक्र दिखने में सरल है, लेकिन इस चक्र की सबसे बड़ी समस्या है - इसके ग्रहणादि कारकों की जटिलता, जिससे व्यक्ति इस चक्र को उचित ढंग से नियंत्रित नहीं रख पाता और फलतः
ग्रहण
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अध्याय 10 : अर्थ-प्रबन्धन
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