________________
यह असन्तुलित हो जाता है।
इस चक्र की जटिलता का मूल कारण यही है कि व्यक्ति अक्सर ग्रहण, सुरक्षा, उपभोग, संग्रह और वृद्धि सम्बन्धी क्रियाओं में अपनी सीमा का उल्लंघन कर देता है। वह पुण्य-पाप कर्मों (संचित कर्मो) के फलस्वरूप प्राप्त परिस्थितियों में अपनी मनःस्थिति को नियंत्रित नहीं रख पाता और कभी ग्रहण का अतिरेक करता है, तो कभी सुरक्षा, उपभोग, संग्रह अथवा वृद्धि का। वह प्रारम्भ में इनके अतिरेक के दुष्परिणामों को समझ नहीं पाता, किन्तु बाद में यही 'अर्थ' उसकी जिंदगी में अनर्थ का मूल बन जाता है।186
इस अर्थ-चक्र की प्रतिसमय बढ़ती हुई विसंगतियाँ व्यक्ति को कैंसर के रोग के समान पीड़ित करती रहती हैं। ये विसंगतियाँ इस प्रकार हैं - 1) जीवन दिनोंदिन बोझिल एवं अशान्तिमय बनना। 2) समस्याओं का दिनोंदिन बढ़ना, किन्तु समाधानों का अभाव होना। 3) पापाचार की वृद्धि होना। 4) साधन-शुद्धि में विवेक का अभाव होना। 5) मानवाधिकारों का हनन होना। 6) अन्यों के साथ वैर-वैमनस्य की वृद्धि होना। 7) प्रसन्नता का अभाव एवं जीवन यंत्रवत् होना। 8) आत्महत्या, मादक पदार्थों का सेवन, आपराधिक प्रवृत्ति आदि की नौबत आना। 9) झूठी शान-शौकत एवं ऐशो-आराम की आदत बन जाना। 10) जीवन के अन्य व्यावहारिक एवं आध्यात्मिक उद्देश्यों की उपेक्षा होना इत्यादि।
___ अतः कहा जा सकता है कि प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में इस चक्र के सम्यक् प्रबन्धन की नितान्त आवश्यकता है।
जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व
584
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org.