________________
इस अर्थ-प्रबन्धन के लिए यह आवश्यक होगा कि व्यक्ति नौ प्रकार के परिग्रह - धन, धान्य, क्षेत्र, वास्तु , स्वर्ण, चाँदी, कुप्य, चतुष्पद, द्विपद आदि की सीमा निर्धारित करे। इन पदार्थों की संख्या, वजन, माप एवं मूल्य आदि को ध्यान में रखते हुए अपनी शक्ति एवं वैराग्यवृत्ति के अनुसार इनके उपयोग का सम्यक् परिमाण करे और धीरे-धीरे इस परिमाण को भी मर्यादित करता जाए। इस सीमांकन की प्रक्रिया में स्थायित्व लाने के लिए इन धन, धान्यादि के सन्दर्भ में सम्यक्तया विचार करके ममत्व-भाव का संकल्पपूर्वक विसर्जन करे। आज भी जैन-परम्परा के कितने ही अनुयायी अणुव्रतों को ग्रहण कर परिग्रह का सीमांकन करते हैं या महाव्रतों को ग्रहण कर परिग्रह का पूर्णतः त्याग करते हैं। परिग्रह-परिमाण (सीमांकन) सम्बन्धी कुछ बिन्दु
अधिकतर लोग यह मानते हैं कि परिग्रह का सीमांकन न आवश्यक है और न विवेकपूर्ण, बल्कि यह तो एक प्रकार का बन्धन है, किन्तु ऐसा मानना उचित नहीं है। इसके निम्न कारण हैं - ★ जिस प्रकार पेट में रोटी, टायर में हवा, बीमारी में दवाई, यात्रा में सीट और शिक्षा में विषय
का सीमांकन करना उचित है, क्योंकि यह सन्तुलन बनाए रखने के लिए आवश्यक है। उसी प्रकार परिग्रह का सीमांकन करना भी जीवन के सन्तुलन को बनाए रखने के लिए आवश्यक
है।
★ यदि अर्थ का सीमांकन नहीं होकर अतिरेक होता है, तो निश्चित रूप से जीवन के अन्य पक्ष,
जैसे - शिक्षा, समय, परिवार, समाज, पर्यावरण, धर्म, मोक्ष आदि भी प्रभावित हुए बिना नहीं रहते। ★ यदि व्यक्ति बारह-चौदह घण्टे केवल व्यापार में ही व्यस्त रहता है, तो वह परिवार, समाज,
धर्म और आत्मा को उचित महत्त्व नहीं दे पाता। अतः जीवन के सर्वांगीण विकास के लिए अर्थ
का सीमांकन आवश्यक है। * जिस प्रकार किसी यात्रा पर जाते समय आवश्यकता से अधिक सामग्रियाँ ले जाना उचित नहीं है, क्योंकि उनमें से कई सामग्रियाँ उपयोग किए बिना ही वापस आ जाती हैं, उनका व्यर्थ भार भी ढोना पड़ता है और यात्रा का सही आनन्द भी नहीं आ पाता। इसी प्रकार, जब जीवन की यात्रा में आवश्यकताएँ अल्प हैं, तो अतिसंग्रह कर व्यर्थ ही भार ढोना भी निश्चित रूप से विवेकपूर्ण नहीं है। ★ सूत्तपाहुड में भी स्पष्ट कहा गया है कि उपलब्ध समस्त वस्तुओं में से जो ग्रहण करने योग्य हैं, उनमें से भी केवल आवश्यकतानुसार अल्प मात्रा में ही वस्तुओं को ग्रहण करना चाहिए। जैसे समुद्र में पर्याप्त जल उपलब्ध होने पर भी यह नहीं सोचा जा सकता कि सारा जल हमारे लिए ही है, उल्टा यदि कोई व्यक्ति वस्त्र धोने के लिए पूरे समुद्र के जल का उपयोग करने लगे तो
यह उसकी मूर्खता ही होगी। इसी प्रकार, परिग्रह तो प्रचूर मात्रा में उपलब्ध है, किन्तु विवेक 577
अध्याय 10 : अर्थ-प्रबन्धन
49
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org