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10.6.2 परिग्रह के भेद
जैनाचार्यों ने परिग्रह के दो भेद किए हैं - आभ्यन्तर या अंतरंग परिग्रह और बाह्य या बहिरंग
परिग्रह।
(1) अंतरंग परिग्रह
अंतरंग परिग्रह मूलतः आत्मा की ही विकारी अवस्था है। प्रश्नव्याकरणसूत्र में इसीलिए कहा गया है कि आशा, इच्छा, तृष्णा, लालसा और मूर्छा - ये सभी अंतरंग परिग्रह हैं। 153 ये भले ही बाहर दृष्टिगोचर न हों, किन्तु भीतर में चोर की तरह छिपे रहते हैं।
अंतरंग परिग्रह के भेदों को निम्नलिखित सारणी के माध्यम से समझा जा सकता है -
अंतरंग-परिग्रह
मिथ्यात्व
मिथ्यात्व
कषाय
कषाय
कषाय (मुख्य)
नोकषाय (सहायक)
1) क्रोध - अक्षमा 2) मान - अहंकार
माया - छल-कपट 4) लोभ - लालच
1) हास्य - हँसी-मजाक 2) रति - बाह्य पदार्थों के प्रति प्रीति 3) अरति - बाह्य पदार्थों के प्रति अप्रीति 4) शोक - अतीत संबंधी दुःख 5) भय - भविष्य संबंधी चिन्ता 6) जुगुप्सा - घृणा 7) पुरूषवेद - स्त्री-मैथुन की कामना 8) स्त्रीवेद - पुरुष-मैथुन की कामना 9) नपुंसकवेद - स्त्री/पुरुष दोनों से
मैथुन की कामना
उपर्युक्त सारणी से स्पष्ट होता है कि अंतरंग परिग्रह के मूलतः दो भेद हैं - मिथ्यात्व (Wrong Belief) एवं कषाय (Wrong Conduct)। मूलतः मिथ्यात्व और कषाय के कारण ही जीव मूर्छा करता है। इनमें भी कषाय के पुनः दो भेद हैं - कषाय (मुख्य) एवं नोकषाय (सहायक)। यह विशेष है कि आत्मा के वे भाव जो आत्मा को कलुषित करते हैं, कषाय (मुख्य) कहलाते हैं तथा वे भाव जो इन कषायों के होने में सहायक होते हैं, नोकषाय कहलाते हैं। जैनदर्शन में मुख्य कषाय के चार भेद बताए गए हैं और नोकषाय के नौ भेद बताए गए हैं। इस प्रकार अंतरंग परिग्रह के कुल चौदह भेद होते हैं – मिथ्यात्व , क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य , रति, अरति, भय, शोक, जुगुप्सा, पुरूषवेद ,
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अध्याय 10: अर्थ-प्रबन्धन
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