________________
बड़ी सुखद और मनोरम है कि धनाढ्यता, सम्पन्नता और समृद्धता सुख रूप है, किन्तु हकीकत में अर्थ के पीछे भागने वाला सदैव दुःखी और चिन्तित ही रहता है।
यह दार्शनिक एवं तात्त्विक चिन्तन हमारी अर्थ सम्बन्धी भ्रमित मान्यताओं को सुधारने के लिए अत्यावश्यक है। इसका लक्ष्य यह भी नहीं है कि प्रत्येक जीवन-प्रबन्धक अर्थ का पूर्ण परित्याग ही कर दे। इसका विशुद्ध आशय तो सिर्फ इतना ही है कि अर्थ के अनावश्यक विस्तार में व्यर्थ श्रम करने के बजाय अर्थ के सीमाकरण का प्रयास किया जाए। यह अर्थ-प्रबन्धन का एक आवश्यक अंग है।
=====4.>=====
38
जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व
566
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org