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अक्सर व्यक्ति बाह्य जगत् में विद्यमान सामाजिक-विकृतियों (Social Evils) से जुड़कर अपने आप को अनैतिक और भ्रष्ट बना लेता है। वह यह मानता है कि क्या करें, वर्तमान परिवेश ही ऐसा है, इसमें समय के साथ चलना ही पड़ेगा, झूठ तो बोलना ही पड़ेगा, रिश्वत तो देनी ही पड़ेगी, शराब तो पिलानी ही पड़ेगी, कर-चोरी तो करनी ही पड़ेगी, गरीबों का शोषण तो करना ही पड़ेगा, किन्तु यह एक भ्रान्त धारणा है। इसमें बाह्य परिवेश को निमित्त बनाकर अपने लोभ की पुष्टि का प्रयास ही अधिक है।
अतः जैनाचार पर आधारित अर्थनीति को अपनाकर व्यक्ति को अपने नैतिक पक्ष को मजबूती प्रदान करना चाहिए, जिससे वह बाह्य आर्थिक वातावरण के दोषों से अप्रभावित रहता हुआ वैयक्तिक स्तर पर सफल, सुदृढ़ और सुविवेकी अर्थ-प्रबन्धक बन सके। (5) अर्थ के प्रति सम्यक दृष्टिकोण
जैसा कि पूर्व में बताया जा चुका है, व्यक्ति को अर्थ की आवश्यकता तब तक महसूस होती है, जब तक उसे अर्थ के प्रति मोह रहता है। वास्तव में यह मोह कोई वस्तु नहीं है, बल्कि एक झूठी कल्पना है। इसमें आत्मा अर्थ को सुख का पर्याय ही मान लेती है तथा अर्थ का अर्जन, संग्रह, सुरक्षा एवं उपयोग आदि आर्थिक क्रियाएँ करती रहती हैं।
यद्यपि जैनदर्शन उस मोह से मुक्त होकर आत्मरमणता की दशा को ही उत्तम मानता है और इसीलिए आत्म-साधना में उद्यत होने पर जोर देता है, फिर भी जब तक मोह की कमजोरी है, तब तक यह अर्थोपार्जन के उचित विवेक की जागृति को भी आवश्यक मानता है। दूसरे शब्दों में, यह व्यक्ति को कितना एवं कैसे अर्थोपार्जन करना, इसका सम्यक् ज्ञान भी कराता है। यही कारण है कि इसमें व्यक्ति को अपनी भूमिकानुसार अर्थोपार्जन करने का निर्देश दिया गया है। जैन-पुराणों में भी कहा गया है कि स्वयं भगवान् ऋषभदेव को राज्यावस्था में रहते हुए प्रजा की आजीविका के लिए षड्विध कर्मों का विधान करना पड़ा। ये कर्म हैं - असि, मसि, कृषि, विद्या, वाणिज्य और शिल्प। वस्तुतः, यह मध्यम मार्ग है।
यदि व्यक्ति इस मध्यम मार्ग की उपेक्षा करता है, तो अर्थ की तृष्णा असीम और अमाप हो जाती है। प्रायः पेट में रोटी की भूख, पाँव में जुते का नाप और कार में सवारी की संख्या तो मर्यादित होती है, किन्तु अर्थोपार्जन के विवेक के अभाव में अर्थ की तृष्णा आकाश के समान अन्तहीन हो जाती है। ऐसी स्थिति में अनेक समस्याएँ उत्पन्न होने लगती हैं एवं असन्तुलन की स्थिति निर्मित हो जाती है। कुल मिलाकर, अर्थ ही जीवन का केन्द्र-बिन्दु बनकर अनर्थ का कारण बन जाता है।
इस विषम स्थिति से उबरने के लिए अर्थ के प्रति सम्यक् दृष्टिकोण बनाना आवश्यक है यानि अर्थ से सुख मिलता है, इस मान्यता को तजना आवश्यक है। जैनाचार्यों द्वारा प्रतिपादित निम्न सिद्धान्तों को हृदय-गम्य कर व्यक्ति अर्थ के प्रति अपनी मान्यता को परिष्कृत कर सकता है -
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अध्याय 10 : अर्थ-प्रबन्धन
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