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उपर्युक्त चर्चा के आधार पर मेरी दृष्टि में, अर्थ-प्रबन्धन को इस प्रकार परिभाषित किया जा सकता है -
आर्थिक प्रयत्नों को सन्तुलित, सुमर्यादित एवं सुव्यवस्थित करने की वह वैयक्तिक एवं सामाजिक प्रक्रिया, जिसमें देश, काल, परिस्थिति एवं स्वभूमिका के आधार पर व्यक्ति अपना आर्थिक व्यवहार इस प्रकार प्रबन्धित करे कि एक ओर उसकी अर्थ-सम्बन्धी आवश्यकताओं की समुचित पूर्ति भी हो जाए और दूसरी ओर उसके वर्तमान एवं भावी जीवन के लिए 'अर्थ' अनर्थ का कारण नहीं, अपितु नैतिक एवं चारित्रिक उन्नति का हेतु बन जाए, अर्थ-प्रबन्धन कहलाती है। (3) अर्थ-प्रबन्धन के उद्देश्य
उपर्युक्त चर्चा के आधार पर अर्थ-प्रबन्धन के प्रमुख उद्देश्य निम्न हैं - ★ अर्थ-प्रक्रियाओं में जैविक-आवश्यकताओं, जैसे – भोजन, वस्त्र, आवास आदि की आपूर्ति के
लिए भूमिकानुसार समुचित प्रयत्न हो। ★ अर्थ-प्रक्रियाओं में शरीर, परिवार, समाज, पर्यावरण आदि उत्तम साधनों की उपेक्षा न हो,
बल्कि उनके प्रति मित्रवत् व्यवहार हो। ★ अर्थ-प्रक्रियाएँ शान्ति, समता, सहजता और सदैव प्रसन्नचित्तता का हेतु बने, न कि अस्थिरता,
अशान्ति , निराशा, विषाद और उत्तेजना का।। ★ अर्थ-प्रक्रियाएँ सिर्फ अर्थ-केन्द्रित न होकर व्यक्ति और उसके चरम साध्य पर केन्द्रित हो। दूसरे शब्दों में, ये धर्मविरोधी एवं पापाचारयुक्त न हो, अपितु धर्मानुकूल एवं मोक्षानुकूल होकर
नैतिक चरित्र-निर्माण में सहायक बने। ★ अर्थ-प्रक्रियाओं का निर्वाह करते हुए संस्कृति, सदाचार एवं शिष्टाचार में भ्रष्टता तथा सामाजिक
सम्बन्धों की उपेक्षा न हो, साथ ही व्यक्ति-द्रोह, परिवार-द्रोह, समाज-द्रोह, राष्ट्र-द्रोह और
विश्व-द्रोह भी न हो। (4) जैनाचार पर आधारित अर्थनीति का मूल
चूँकि भौतिकवाद की जड़ें विश्वव्यापी हैं, अतः विश्वस्तरीय और राष्ट्रस्तरीय अर्थनीतियों में समुचित संशोधन कर पाना इतना आसान नहीं है।
फिर भी, मौजूदा परिवेश में जीता हुआ व्यक्ति अपनी वैयक्तिक अर्थनीति को सुधारकर यानि जीवन-दृष्टि एवं जीवन-व्यवहार में आध्यात्मिक, नैतिक और भौतिक आवश्यकताओं का सम्यक समन्वय कर अर्थ-प्रयत्नों में समीचीनता तो ला ही सकता है। इसीलिए यहाँ विवेच्य अर्थ-प्रबन्धन का सम्बन्ध व्यक्ति से भी है और विश्व से भी है।
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जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व
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