________________
10.5 जैनआचारमीमांसा के आधार पर अर्थ-प्रबन्धन
अर्थ-प्रबन्धन की पद्धति मूलतः 'अर्थ' के सम्यक् सीमाकरण से सम्बन्धित है। व्यक्ति अपनी आर्थिक-प्रक्रियाओं में 'अति' और 'अल्प' की विसंगतियों से बचता हुआ उचित आवश्यकताओं की पूर्ति का ही प्रयत्न करे, यही अर्थ-प्रबन्धन का ध्येय है।
इस हेतु अर्थ–सम्बन्धी दो पक्षों पर चर्चा आवश्यक है -- ★ अर्थ का सैद्धान्तिक या दार्शनिक पक्ष * अर्थ का प्रायोगिक या व्यावहारिक पक्ष
सैद्धान्तिक-पक्ष का सम्बन्ध एक ऐसे सूक्ष्म, यथार्थ और निष्पक्ष दृष्टिकोण से है, जिससे अर्थ के सन्दर्भ में व्यक्ति के भ्रामक, ऐकान्तिक और सतही दृष्टिकोण का निराकरण हो सकता है। इसी प्रकार प्रायोगिक-पक्ष का सम्बन्ध उस जीवन-व्यवहार से है, जिसके माध्यम से व्यक्ति अपनी भूमिकानुसार जीता हुआ अर्थ-प्रबन्धन के लक्ष्यों की सफल प्राप्ति कर सके। वस्तुतः, सैद्धान्तिक–पक्ष और प्रायोगिक-पक्ष दोनों अभिन्न हैं, क्योंकि एक 'आधार' है, तो दूसरा 'आधेय', एक 'विचार' है, तो दूसरा 'आचार' और एक 'योजना' है, तो दूसरा क्रियान्वयन'। सैद्धान्तिक-पक्ष से प्राप्त दृष्टि ही प्रायोगिक-पक्ष के लिए पथ-प्रदर्शक है, जबकि प्रायोगिक पक्ष के द्वारा स्थापित व्यवहार-नीति ही जीवन-प्रबन्धक के सम्यक् आर्थिक व्यवहार का आधार है। इस प्रकार अर्थ-प्रबन्धन में दोनों की ही उपयोगिता है।
सर्वप्रथम अर्थ-प्रबन्धन के सैद्धान्तिक पक्ष की चर्चा की जा रही है - 10.5.1 जैनआचारमीमांसा में अर्थ-प्रबन्धन का सैद्धान्तिक-पक्ष (1) अर्थ-प्रबन्धन की पृष्ठभूमि
आधुनिक अर्थनीति के कतिपय दोषों और उनके अतिखतरनाक दुष्परिणामों का अवलोकन करने पर हम पाते हैं कि अधिकांश लोग इससे प्रभावित हो रहे हैं। यह एक सार्वभौमिक समस्या बन चुकी है। इसमें व्यक्ति की दशा उस दयनीय मकड़ी के समान है, जो अपने बुने जाल में स्वयं ही फँसकर तड़प-तड़प कर मर जाती है।
आखिर, लाभ के लिए किए जा रहे अर्थ सम्बन्धी अथक प्रयत्न नुकसानदेय क्यों सिद्ध हो रहे हैं? आखिर व्यक्ति के जीवन से सुख, शान्ति एवं आनन्द क्यों गायब हो रहे हैं? यह आधुनिक अर्थनीति के लिए एक प्रश्न-चिह्न है।
जैन जीवन-दृष्टि के आधार पर देखें, तो आधुनिक अर्थनीति की मूल भूल है - इसका केवल भौतिकवादी होना। 14 भौतिकवादी अर्थनीति भले ही बाह्य समृद्धि और सुविधा प्रदान कर सके, किन्तु जीवन में सुख-शान्ति का संचार नहीं कर सकती। इतना ही नहीं, यह अर्थ की लक्ष्यविहीन एवं अन्तहीन दौड़ को प्रारम्भ और गतिशील तो कर देती है, किन्तु उस पर आवश्यक अंकुश और विराम नहीं लगा पाती। सोचनीय है कि जहाँ अंकुश नहीं होगा, वहाँ मर्यादाओं का पालन कैसे होगा, जहाँ 30
जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व
558
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org