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10.1.7 अर्थ केन्द्र में अथवा परिधि पर
पूर्वोक्त चर्चा के आधार पर कहा जा सकता है -
जब जीवन में अर्थ और भोग की प्रधानता होती है, तब तन, धन, परिजन आदि बाह्य-अर्थों का स्थान केन्द्र में होता है और व्यक्ति (आत्मा) का परिधि पर। किन्तु, जब धर्म और मोक्ष की प्रधानता होती है, तब व्यक्ति (आत्मा) का स्थान केन्द्र में होता है और अर्थ का परिधि पर। पहली स्थिति में अर्थ के लिए जीवन है, तो दूसरी में जीवन के लिए अर्थ। जैनाचार्यों के अनुसार, यह द्वितीय स्थिति ही अर्थ-प्रबन्धन के लिए उचित है। 10.1.8 आभ्यन्तर एवं बाह्य अर्थ में सम्बन्ध
जैसे-जैसे बाह्य अर्थ का आकर्षण, महत्त्व या उपयोग बढ़ता है, वैसे-वैसे आभ्यन्तर अर्थ (आत्मा) में क्रोधादि कलुषता, विकार तथा विभाव की मात्रा एवं तीव्रता भी बढ़ती हैं। अतएव जैनाचार्यों ने सीमित आवश्यकता एवं अनासक्तिपूर्ण जीवन की ही अनुशंसा की है।
जैनधर्म में बाह्य-अर्थ को बाह्य-परिग्रह और आभ्यन्तर अर्थ में उत्पन्न होने वाले विकारी परिणामों को आभ्यन्तर-परिग्रह कहा गया है। बाह्य-परिग्रह में सभी भौतिक पदार्थ आते हैं, जबकि आभ्यन्तर–परिग्रह में राग-द्वेष एवं कषाय अर्थात् क्रोध, मान, माया और लोभ । इनका विस्तृत विवेचन आगे किया जाएगा।
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जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व
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