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अथवा मूढ अवस्था को 'मोह' कहते हैं।
मोह के तीन रूप हैं - 1) मिथ्यादर्शन – सत्य को सत्य नहीं मानना। 2) मिथ्याज्ञान - सत्य को सत्य नहीं जानना। 3) मिथ्याचारित्र - सत्य को सत्य रूप में नहीं जीना।29
इस मोह के दो परिणाम जीव को प्राप्त होते हैं - ★ पारलौकिक फल - प्रतिसमय कर्मों का बन्धन तथा तदनुसार परलोक में विविध जीवनरूपों
(चींटी, भ्रमर, मनुष्य आदि) की प्राप्ति। ★ ऐहलौकिक फल – प्रतिसमय मूल प्रवृत्तियों अर्थात् संज्ञाओं (इच्छाओं) की उत्पत्ति तथा तज्जन्य असन्तुष्टि, अशान्ति तथा व्याकुलता की प्राप्ति।30
इस मोह से चार प्रकार की संज्ञाएँ उत्पन्न होती हैं, जिनसे छुटकारा पाने के लिए व्यक्ति को निम्नलिखित प्रयत्न करने पड़ते हैं - ★ आहार संज्ञा से सम्बन्धित प्रयत्न - भाण्ड, पात्र, भोज्यपदार्थ आदि को ग्रहण करना। ★ भय संज्ञा से सम्बन्धित प्रयत्न - नौकर-चाकर, आवासादि सुरक्षा व्यवस्था करना। ★ मैथुन संज्ञा से सम्बन्धित प्रयत्न – ऐन्द्रिक विषय, विजातीय संसर्ग आदि भोगोपभोग करना। ★ परिग्रह संज्ञा से सम्बन्धित प्रयत्न - धन, धान्य, क्षेत्र, वास्तु आदि का संग्रह करना।
सामान्यतया इन संज्ञाओं को स्वाभाविक प्रवृत्ति तथा इनकी पूर्ति को साहजिक एवं अनिवार्य कर्त्तव्य के रूप में माना जाता है, किन्तु जैनाचार्यों की दृष्टि में, यदि मोह का अभाव कर दिया जाए, तो संज्ञाएँ एवं तथाकथित अर्थ-दायित्व के निर्वाह की बाध्यता उत्पन्न ही नहीं होगी। अतएव अर्थोपार्जन करना संज्ञाजन्य दुःखों को उपशान्त करने के लिए केवल एक विवशता है। आत्म-साधना के द्वारा मोह एवं संज्ञाओं का अल्पीकरण करते हुए अर्थ की आवश्यकता का अल्पीकरण करना चाहिए। किसी अपेक्षा से यही अर्थ-प्रबन्धन की सम्यक् प्रक्रिया है।
__उल्लेखनीय है कि सुप्रसिद्ध अर्थशास्त्री प्रो. जे. के. मेहता ने भी इच्छाविहीनता (Wantlessness) को ही आदर्शात्मक स्थिति कहा है। किसी दृष्टि से उनका अर्थ-दर्शन जैनधर्मदर्शन की अवधारणा की ही पुष्टि करता है। 10.1.6 जीवन में अर्थ की भूमिका
व्यवहार के धरातल पर अर्थ की उपयोगिता एक सर्वमान्य सत्य है। फिर भी, जीवन में अर्थ की भूमिका या स्थान को लेकर चार पक्ष हो गए हैं, जिनमें से सम्यक् पक्ष का चयन करना अर्थ-प्रबन्धक का अनिवार्य कर्त्तव्य है। ये पक्ष इस प्रकार हैं -
जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व
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